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Showing posts from July, 2025

"पिता: नायक या खलनायक?"

  आँखों ने पिता के चेहरे से ज़्यादा उनके पांव की तस्वीर क़ैद की है।  कत्थई रंग की एक जोड़ी चप्पल, जिसकी उम्र पिता की उम्र के बराबर ही रही होगी, उसे सीढ़ी पर रखे हुए देखने में पिता के पांव की छाप साफ़ नज़र आती है। पिता झुक कर चलने लगे हैं, लेकिन सारी उम्र रीढ़ का महत्व बताते आए हैं। सीधे नहीं बैठने पर टोकते हैं और सीधे रास्ते पर चलने के लिए दाएं-बाएं चलते हुए बताते हैं। पहले फटकार देते थे। फिर भी हम ऊट-पटांग काम करने से पीछे नहीं हटते थे। पिता का रोकना-टोकना, जीवन जीने के आड़े आता रहा। हम भाई-बहनों ने अपने जीवन की फ़िल्म का खलनायक, पिता को अपनी छोटी-सी बैठकी में सार्वजनिक तरीके से घोषित कर दिया। हम सब ने संकल्प लिया कि करेंगे तो अपने मन का। पिता का ज़माना गुज़र गया, यह नया ज़माना है — हम जैसों का, जो हमारे सामने खड़ा है। पिता का अनुशासन तब तक ही है जब तक हम सब घर में हैं। घर से निकलते ही, हम पतंग बन जाएंगे। घर छूटा, पढ़ने निकले — पतंग तो क्या, कटी पतंग बन गए। फिर समझ आया, पतंग को आसमान में उड़ते रहने के लिए अनुभवी हाथों में उसकी डोर होनी चाहिए। जिस पिता को हम खलनायक मान बैठे थे...