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"पिता: नायक या खलनायक?"

 


आँखों ने पिता के चेहरे से ज़्यादा उनके पांव की तस्वीर क़ैद की है। कत्थई रंग की एक जोड़ी चप्पल, जिसकी उम्र पिता की उम्र के बराबर ही रही होगी, उसे सीढ़ी पर रखे हुए देखने में पिता के पांव की छाप साफ़ नज़र आती है। पिता झुक कर चलने लगे हैं, लेकिन सारी उम्र रीढ़ का महत्व बताते आए हैं। सीधे नहीं बैठने पर टोकते हैं और सीधे रास्ते पर चलने के लिए दाएं-बाएं चलते हुए बताते हैं।

पहले फटकार देते थे। फिर भी हम ऊट-पटांग काम करने से पीछे नहीं हटते थे। पिता का रोकना-टोकना, जीवन जीने के आड़े आता रहा। हम भाई-बहनों ने अपने जीवन की फ़िल्म का खलनायक, पिता को अपनी छोटी-सी बैठकी में सार्वजनिक तरीके से घोषित कर दिया। हम सब ने संकल्प लिया कि करेंगे तो अपने मन का। पिता का ज़माना गुज़र गया, यह नया ज़माना है — हम जैसों का, जो हमारे सामने खड़ा है। पिता का अनुशासन तब तक ही है जब तक हम सब घर में हैं। घर से निकलते ही, हम पतंग बन जाएंगे। घर छूटा, पढ़ने निकले — पतंग तो क्या, कटी पतंग बन गए। फिर समझ आया, पतंग को आसमान में उड़ते रहने के लिए अनुभवी हाथों में उसकी डोर होनी चाहिए। जिस पिता को हम खलनायक मान बैठे थे, वो तो वास्तव में नायक था। हाँ! गंभीर नायक — और शायद कठोर और क्रोधित भी।

पिता का ज़बरदस्ती भोर में उठाना और रात में जल्दी सोने पर ज़ोर देना — यह हमारी आज़ादी का हनन था। फिर बड़े होने पर, ख़ुद को जल्दी सोने और उठने के लिए रणनीति तैयार करते हुए पाया। फलाने-ढिमकाने दोस्तों की सोहबत पर उनका ऊंगली उठाना। हमें लगता था कि पिता ने ही दुनिया देखी है, सब कुछ केवल इन्हीं को मालूम है। और शायद हमारा भी मानना था कि पिता को कुछ नहीं मालूम। पिता ने अपना नज़रिया पेश किया और हमने अपना— लेकिन किसी ने एक-दूसरे की आँखों से देखने की कोशिश नहीं की। हमारी भाषाएँ एक थीं — लेकिन व्याकरण भिन्न। बहुत लंबे समय तक — पिता और हम बच्चे — रेल की पटरियों जैसे रहे। अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ, लेकिन वास्तव में कोई जुड़ाव नहीं।

हाल-फिलहाल में पिता समझ में आने शुरू हुए। पिता ने बोलने से ज़्यादा सुनने में दिलचस्पी दिखाई। हमने भी अपने लड़खड़ाते शब्दों में मन का द्वार खोलने की पुरज़ोर कोशिश की। शुरुआत में चरमराहट की आवाज़ आई। समय लगा और आवाज़ ठहाकों में तब्दील हो गई। पिता हम में से लगने लगे। हम जैसी कहानी, उनकी भी रही। हमने पिता को ध्यान से देखना शुरू किया। नम आँखें दिखीं और दिखा एक छुपा हुआ सैलाब। इसी जनम के किसी दौर में हमने केवल क्रोध सुना था, सुर्ख लाल आँखें देखने की ज़ुर्रत हमने कभी नहीं की।

हम तो विपरीत छोर की तरफ बढ़ चले थे लेकिन बीमारी नामक पिशाच ने पिता पर हमला बोल दिया। जब धावा बोला तो लगा कि अब बस, किसी भी क्षण सब मिट्टी हो जाएगा। उम्मीद तब किसी प्रतीक्षा की कुर्सी पर बैठकर झूल रही थी। पिता का आत्मबल चरम पर रहा। दो सालों तक जूझने के बाद दूसरा जन्म मिला। इस अंतराल में माँ कुछ-कुछ पिता हो गई और शायद पिता का कुछ-कुछ माँ हो जाना तब शुरू हुआ। आज कई सालों बाद भी बीमारी ने पिता का साथ नहीं छोड़ा। अस्पताल के चक्कर आम से हो चुके हैं। हमने कई दफ़ा उम्मीद छोड़ी लेकिन बीमार पिता ने कभी जीवन का मोह नहीं छोड़ा। हम लोग जीवन की छोटी हारों के बाद, जीवन में कुछ नहीं बचा — मान लेते हैं। असल में साँसों का चलना सबसे बड़ी जीत है। अस्पताल में प्रवेश करते हुए लगता है कि लड़ाई केवल ज़िंदा बचने की है। उसके बाद तो व्यक्ति कुछ भी देख सकता है।

हमारा खलनायक अब हमारा दोस्त बन चुका है। शायद इसकी सबसे बड़ी वजह बीमारी ही रही है। मृत्यु के मुँह से निकलने के बाद और वापस जीवित होने तक के बीच — सोचने के लिए बहुत समय होता होगा... पश्चाताप के लिए, बदलाव के लिए। 

यह नया ज़माना, जितना हमारा है, उतना ही पिता का भी। दोनों इस ज़माने में, शुरू से सब कुछ फिर से शुरू कर रहे हैं। हमारी बैठकी में दुनिया-जहाँ सिमट आता है। हम अपने सीमित ज्ञान से पिता से बहस-मुबाहिसा करते हैं। पिता के खलनायक वाले दौर से हमने इत्तेफ़ाक़ रखना बंद कर दिया है। क्योंकि शायद अब इस उम्र में हम थोड़े पिता हो गए हैं और पिता थोड़े बच्चे।

~आमना 

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