विनोद जी चले गए। आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि किसी बुज़ुर्ग और बीमार व्यक्ति के जाने पर आश्चर्य नहीं होता। हमें अंदाज़ा हो ही जाता है कि किसी भी घड़ी मृत्यु दरवाज़े के भीतर दाख़िल हो सकती है, लेकिन मृत्यु के इस घात के लिए कोई कभी तैयार नहीं होता। हम किसी के जाने को एक हद तक स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन उनके बिना जीवन गुज़ारने को मरते दम तक स्वीकार नहीं कर पाते। जिस तरह हमारे-आपके बाबा गए होंगे, लगभग उसी तरह विकुशु भी चले गए। हम रह गए, और रह गई दीवार में एक खिड़की— जस की तस, और उसके बग़ल में कील पर टंगी एक कमीज़। किसी प्रिय के जाने पर कितने लोगों का जाना याद आता है। कितने सारे स्पर्श काया की सतह पर रेंगने लगते हैं। स्मृतियाँ हमारी याददाश्त की सीढ़ियों पर लुढ़कने लगती हैं। उनकी ख़ाली जगहों पर धुँधलके से वही उठते-बैठते नज़र आते हैं। जैसे विकुशु के शब्दों में कहा जाए कि, "हाथी आगे-आगे निकलता था और पीछे हाथी की ख़ाली जगह छूटती जाती थी।" विनोद जी से कभी मिलना नहीं हुआ, हाँ, लेकिन मिलने की इच्छा ज़रूर रही। उन्हें सामने से सुनना था। उनके किसी आम दिन के चंद घंटों को जीवन भर के ख़ास पलों ...