कितना एकांत होता है किसी परीक्षा की तैयारी करना| एक 4 by 4 के कमरे में किताबों का ढेर और चारों ओर बिखरे हुए सपने और कहीं बीच में जूझते हुए हम| दुनिया का कहीं बहुत पीछे हाथ छूट जाता है और बस कमरे तक सिमट जाती है दुनिया| तैयारी का शुरुवाती दौर दुनिया को बदलने का साहस रखता है और अंत तक आते-आते बस जो कुछ भी बदल पाता है तो सिर्फ़ हममें| पता नहीं कितनी बार धैर्य का पुल गिरने वाला होता है पर दृंढ़ निश्चय बचा लेता है| कितनी बार लगता है कि क्यों देना ख़ुद को इतना कष्ट तब याद आती है सोहनलाल द्विवेदी जी की कविता की पंक्तियाँ~ “कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती” बहुत मुश्किल होता है अपने आप को बांधे रखना| हर दूसरे दिन कहीं भाग जाने का मन करता है और हर दिन अपना मन मार के कुर्सी पे बैठ कर पढ़ना चुनना होता है| हमारे इसी तरह का छोटे-छोटे चुनाव, हमें हमारे गंतव्य के ओर पहुँचा देते है| कन्धा नहीं होता न कोई साथ देता है| तानों और तनाव से भरा होता है यह युद्ध और हर हाल में हमें यह युद्ध लड़ना होता है स्वयं के लिए| बड़े-बड़े युद्ध अक़्सर शांत कमरों में अकेले लड़े जाते...