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Showing posts from November, 2024

"किताबी रिश्ता"

बहुत कम बार जीवन में ऐसा होता है कि आप बहुत सारा कुछ महसूस कर रहे हों लेकिन वो बहुत सारे कुछ को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ शब्द भी साथ देने से लगातार इंकार कर रहे हों। कुछ ऐसा ही मैं बहुत दिनों से महसूस कर रही हूँ । पोस्ट से आयी कुछ किताबें मुझे लगातार ऐसा महसूस करा रही हैं। किताबों से कत्थई रंग का पर्दा हटाते हुए मानो बंजर आँखों में फूल खिलने लगे। भेजने वाले को मैं व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानती लेकिन बतौर इंसान बहुत अच्छे से जानती हूँ। केवल मेरे हिस्से किताबें नहीं आयी, ढेर सारा स्नेह मेरे हिस्से पहुँचा। मेरे और भेजने वाले के बीच ख़ून का रिश्ता नहीं है पर एक किताबी रिश्ता है। शायद ख़ून से भी गहरा .........  किताबों में गढ़े पात्र कभी-कभी, दो भिन्न लोगों के बीच गढ़ देते हैं एक किताबी रिश्ता। किताबों की तरह अमर और अजर। मेरी गिनती की किताबों के बीच वे किताबें अलग से झाँक रही हैं। मैं निहार रही हूँ उनके झाँकने को। किताबों के पन्ने पलटते हुए मानो संगीत निकल कर कमरे को लयबद्ध कर रहा हो। अगर स्वर्ग जैसा कुछ होता है तो यक़ीनन मैं स्वर्ग में हूँ।   एक व्यक्ति जब किसी व्यक्ति को...

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...

"मैं"

मेरी नसीहतों में साफ़ ज़ाहिर होता है कि मैं कितना ज़ोर आनेवाले कल को बेहतर बनाने के लिए देती हूँ पर जब ख़ुद   को समझाना होता है तो अपने आप को द्वन्द के घेरे में   मिलती हूँ | मैं कितनी आश्वस्त थी बहुत पहले पर मैं आज इस बात को मान नहीं सकती | ऐसा क्या हुआ जो मैं ख़ुद   को लेकर कुछ भी बोलने में कतराने लगी | मेरे साथ क्या घटा जो मैं ऐसी हो गयी | ( करीबन रात के 3 बज रहे है और मैं बालकनी में बैठी इतनी तेज़ बोल रही हूँ कि मुझे ख़ुद  भी नहीं पता मैं क्या-क्या बोल रही हूँ |) मैं न हारा , न जीता महसूस कर रही हूँ असल में मैं कुछ भी महसूस नहीं कर रही हूँ | कैसे मैं कुछ भी महसूस नहीं कर रही और कुछ क्यों महसूस नहीं हो रहा है ? क्या मैं इस पल ज़िंदा भी हूँ या ज़िंदा लाश बन गयी हूँ ? मेरा होना क्या कोई झूठ है या यही सच है कि मैंने इस झूठ को अपना सच बहुत पहले मान लिया था ? मैं तो शायद कभी सवालों के उत्तर ढूंढने के लिए बेचैन ...