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"मैं"




मेरी नसीहतों में साफ़ ज़ाहिर होता है कि मैं कितना ज़ोर आनेवाले कल को बेहतर बनाने के लिए देती हूँ पर जब ख़ुद को समझाना होता है तो अपने आप को द्वन्द के घेरे में मिलती हूँ| मैं कितनी आश्वस्त थी बहुत पहले पर मैं आज इस बात को मान नहीं सकती| ऐसा क्या हुआ जो मैं ख़ुद को लेकर कुछ भी बोलने में कतराने लगी| मेरे साथ क्या घटा जो मैं ऐसी हो गयी|



(करीबन रात के 3 बज रहे है और मैं बालकनी में बैठी इतनी तेज़ बोल रही हूँ कि मुझे ख़ुद भी नहीं पता मैं क्या-क्या बोल रही हूँ|)



मैं हारा, जीता महसूस कर रही हूँ असल में मैं कुछ भी महसूस नहीं कर रही हूँ| कैसे मैं कुछ भी महसूस नहीं कर रही और कुछ क्यों महसूस नहीं हो रहा है? क्या मैं इस पल ज़िंदा भी हूँ या ज़िंदा लाश बन गयी हूँ? मेरा होना क्या कोई झूठ है या यही सच है कि मैंने इस झूठ को अपना सच बहुत पहले मान लिया था? मैं तो शायद कभी सवालों के उत्तर ढूंढने के लिए बेचैन रहती थी पर आज मेरे पास सवालों की एक बहुत लम्बी फेहरिस्त है लेकिन मुझे कोई बेचैनी भी नहीं हो रही| मेरे बाहर ऐसा क्या घटा जिससे मेरे भीतर कुछ भी घटना रुक गया| मैं क्यों हर रोज़ घंटों एकटक सड़क को देखती हूँ? मुझे किसी का इंतज़ार है, मुझे कहीं जाना है| मैंने बचपन में तय किया था कि जीवन स्थिरता वाला नहीं जियूँगी पर आज मुझे स्थिरता अच्छी लगती है|


(क्यों बचपन में ज़्यादातर तय की हुई चीज़ों को, बड़े होने में हम बदल देते हैं?)



मैं शायद बीत चुकी हूँ जैसे दिन, महीने और साल बीत जाते है| अब मुझमें जो कुछ बचा है वो मेरा नहीं है| मैं लोगों के मुखौटों से डरती थी; मैं आज ख़ुद मुखौटा पहन के मिलती हूँ जिससे मैं छुपा सकूँ जो मैं नहीं हूँ| मुझे ठीक से याद भी नहीं मैंने ख़ुद का अभिनय करना कब से शुरू किया था|



मुझे बचपन में नाटक देखना बहुत पसंद था| मैं पिता से ख़ूब ज़िद करती थी, नाटक का हिस्सा बनने के लिए| बड़े होकर समझ में आया कि नाटक को बिना पेशा बनाये भी हम सब नाटक करते हैं आम दिनों में आम दिखते रहने के लिए|


(मेरी नज़र सड़क से हट कर सामने वाले फ्लैट पर रुक जाती है जहाँ पहले अँधेरा रहता था|)



किसी के जाने से ख़ाली जगह भर जाती है या ख़ाली जगह जैसा कुछ नहीं होता? ख़ाली जगह का भी कुछ अपना अस्तित्व रहा होगा जो ढोता होगा कभी अपने भरे रहने का बोझ| क्या पता सामने वाले फ्लैट में पहले भी कोई रहता होगा बस मेरी नज़र आज गयी| इतनी बड़ी आबादी वाले शहर में रहने का यही नुक़्सान है कि लोगों की तादाद बढ़ जाती है और मेल-मिलाप घट जाते है| मुझे तो हमेशा से अकेले रहने में मज़ा आता था पर अब मुझे रिश्तों का ख़ालीपन दीमक की तरह खोखला क्यों कर रहा है?



क्या मेरा इस कदर अजीब होना आम है? या मैं इसको इतने समय से आम मान कर जी रही हूँ| मैं काम पे जाती हूँ और अपने साथ वालों के साथ ख़ूब हँसती हूँ तो कभी हम लोग घूमने चले जाते हैं पर मुझे घर वापिस लौटने की जल्दी हमेशा रहती है| घर का दरवाज़ा खोलने पे इंतज़ार करता हुआ सोफ़ा, किताबें, बालकनी और बिस्तर मिलते है| इनको देखकर सारी थकान मिट जाती है| मैं सालों से इस छोटी दुनिया में रह रही हूँ जो बड़ी सी दुनिया का हिस्सा है पर बड़ी सी दुनिया के कायदे कानून से बहुत दूर है| मैंने ऐसा रहना नहीं चुना था| मैंने कभी कुछ चुना नहीं| सब अपने आप घटा और मेरे हिस्से में गया| मुझे चुनाव से हमेशा डर लगता रहा कि मैं अपने असल व्यक्तित्व को न चुनकर, दिखावटी व्यक्तित्व का चुनाव ना कर लूँ|


~आमना 

Comments

  1. बहुत बढ़िया, गहरा लिखा है, तारीफ़ करने के लिए हमारे पिटारे में शब्द जरा कम है बस

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  2. Har baar kuch achha padhne ko mil rha....keep it up like this 🤗❤️

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