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"चुप्पियाँ"


अब मुझे चुप रहना अजीबो-ग़रीब लगने लगा है। सच कहूँ तो, यह अपनी अनुभव की गई भावनाओं के साथ धोखा करने जैसा है। हम अक्सर चुप रहने का यह कारण देकर खुद को सवालों की लंबी सुरंग में फँसने से बचा लेते हैं कि हमारे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। लेकिन क्या सच में शब्दों का ब्रह्मांड इतना सीमित है? या फिर हम शब्दों की खोज में प्रयास करने से कतराते हैं? चुप्पी किसी सवाल का जवाब हो सकती है, लेकिन जब एक चुप्पी का जवाब दूसरी चुप्पी बनने लगे और फिर सैकड़ों चुप्पियाँ एक-दूसरे को धकेलती हुई हमारी ओर कुचलने के भाव से बढ़ें, तो क्या यह गहन शोध का विषय नहीं बन जाता? हम अनगिनत भाषाओं की हवा में साँस लेते हैं, लेकिन जब चुप्पी तोड़ने की बारी आती है, तो हम साँस रोक लेना अधिक उचित समझते हैं। दरअसल, हम चुप्पियों से भरे पुतले बन चुके हैं। हम स्पर्श करने में संकोच करते हैं, फिर भी जैसे-तैसे पहला क़दम बढ़ा लेते हैं, लेकिन जब बात चुप्पी के सिरों को खोलने की होती है, तो हम हज़ारों क़दम विपरीत दिशा में रखने में सहज होते हैं। शुरू में चुप्पियाँ आलाप के मानिंद लगती हैं, पर समय बीतने पर वो विलाप में परिवर्तित हो जाती हैं। हमें भी चुप्पियों से पल्ला झाड़ने का मन करता है, लेकिन इतने अरसे से जमीं इन चुप्पियों की पर्वत-सी परतें क्या इतनी आसानी से पिघलेंगी? 


चुप्पियाँ तोड़ना अपने प्रति थोड़ा और मनुष्य होने की पहल हो सकती है। बहुत अधिक मनुष्य होने के लिए, किसी और मनुष्य की चुप्पियों के पास कान लगाकर सुना जा सकता है — उसके भीतर की चुप्पियों की भिड़ंत। प्रेम से चुप्पियों को समझाया जा सकता है, मनुष्य को पुचकारा जा सकता है। हमारा स्पर्श बन सकता है निदान — किसी के अरसे से जमी चुप्पियों की पर्वत-श्रृंखला को पिघलाने का।


~आमना 

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