Skip to main content

'था' और 'है'

 


लेखन मेरे लिए आज के दुखों का निवारण है। लिख पाना मेरे लिए सबसे बड़ा सुख रहा है। अपने आपको दर्ज़ कर पाना, अपने प्रति उदार होने जैसा है। लेखन एक तरह का संवाद है— संगीतमय। अपनी धुन में बहता हुआ, उतार-चढ़ाव झेलता हुआ— काल्पनिक और वास्तविक प्रकरणों का मिला-जुला परिणाम। अपने पुराने लेखन की ओर लौटना अचंभित कर देता है।

आज जो हूँ, उसके लिए बीते कल की मैं अपरिचित हूँ। 'मैं जैसी थी' और 'अभी जैसी हूँ'— ये अवस्थाएँ कालजयी नहीं होतीं। परिवर्तन है, इसीलिए शायद ‘है’ का कारण जानने के लिए अक्सर ‘था’ में लौटना पड़ता है। बीते हुए को जिया नहीं जा सकता, लेकिन बीते हुए की ओर लौटा जा सकता है। समय के साथ बीते कल से दूरी बढ़ने लगती है। मुझे इस बढ़ती दूरी से पहले घबराहट होती थी, लेकिन अब लगता है कि जब किसी एक बिंदु से दूरी बढ़ती है, तो किसी और बिंदु के क़रीब आना भी तय होता है। आख़िर, हर समय हमारा चलना किसी दो बिंदुओं के बीच ही होता है। जीवन के अलग-अलग दौर में इन बिंदुओं की शक्ल भी बदलती रहती है। हालाँकि हमें लगता यही है कि हमारे हिस्से केवल एक ही बिंदु है, और उसकी परिधि पर घूम-घूम कर ही सारा जीवन गुज़ारना है।बहुत कुछ 'लगने' में, बहुत कुछ 'समझने' की सम्भावना हमेशा बनी रहती है। नयी समझ, पुरानी समझ पर हँसने से ज़्यादा विस्मय करती है। फ़िलहाल मैं ढलती शाम से विस्मित हूँ।  


शीर्षक सोचते हुए मुझे इरफ़ान साहब याद आ गए। 

"दरिया भी मैं, दरख्त भी मैं, झेलम भी मैं, चिनार भी मैं. दैर भी हूं हरम भी हूं. शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं, मैं हूं पंडित, मैं था, मैं हूं और मैं ही रहूंगा"

- हैदर



Comments

Popular posts from this blog

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...

"पिता: नायक या खलनायक?"

  आँखों ने पिता के चेहरे से ज़्यादा उनके पांव की तस्वीर क़ैद की है।  कत्थई रंग की एक जोड़ी चप्पल, जिसकी उम्र पिता की उम्र के बराबर ही रही होगी, उसे सीढ़ी पर रखे हुए देखने में पिता के पांव की छाप साफ़ नज़र आती है। पिता झुक कर चलने लगे हैं, लेकिन सारी उम्र रीढ़ का महत्व बताते आए हैं। सीधे नहीं बैठने पर टोकते हैं और सीधे रास्ते पर चलने के लिए दाएं-बाएं चलते हुए बताते हैं। पहले फटकार देते थे। फिर भी हम ऊट-पटांग काम करने से पीछे नहीं हटते थे। पिता का रोकना-टोकना, जीवन जीने के आड़े आता रहा। हम भाई-बहनों ने अपने जीवन की फ़िल्म का खलनायक, पिता को अपनी छोटी-सी बैठकी में सार्वजनिक तरीके से घोषित कर दिया। हम सब ने संकल्प लिया कि करेंगे तो अपने मन का। पिता का ज़माना गुज़र गया, यह नया ज़माना है — हम जैसों का, जो हमारे सामने खड़ा है। पिता का अनुशासन तब तक ही है जब तक हम सब घर में हैं। घर से निकलते ही, हम पतंग बन जाएंगे। घर छूटा, पढ़ने निकले — पतंग तो क्या, कटी पतंग बन गए। फिर समझ आया, पतंग को आसमान में उड़ते रहने के लिए अनुभवी हाथों में उसकी डोर होनी चाहिए। जिस पिता को हम खलनायक मान बैठे थे...