कितनी सारी पुकारें होती हैं, जो अनसुनी रह जाती हैं। बार-बार अपनी ही आवाज़ टकराकर हम तक लौटती है, और उसकी तीव्रता व क्रूरता और बढ़ जाती है। भीतर बहुत कुछ दफ़्न रह जाता है, और कई आँसू तो गिरने से पहले ही सूख जाते हैं। कितने ही सफ़र ऐसे होते हैं, जो गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही पगडंडियों पर चलते-चलते दम तोड़ देते हैं। इतना कुछ हो जाता है, फिर भी हम आह तक नहीं भर पाते। हम लंबी और गहरी साँस लेकर फिर से शुरू करते हैं — कभी शुरू से, और ज़्यादातर अंत से। हमारे हिस्से में "काश" और "शायद" से शुरू होने वाले वाक्यों की संख्या बहुत अधिक होती है। अजीबो-ग़रीब एहसासों की धूल चेहरे पर पड़ने से पहले ही चेहरा धोना पड़ता है। इस खांचे में ढलने में थोड़ा बहुत हाथ समाज का, और बहुत बड़ा हाथ हमारा अपना रहा है। आगे-आगे बढ़ते हुए, पीछे की ज़मीन खाई में तब्दील होती जाती है। हमने घड़ी को कलाई में बाँधा, लेकिन असल में हम वक़्त से बंध गए — और इसे हमने कभी बंधन माना ही नहीं। आसमान की ओर देखते-देखते, हमारी जड़ें किसी बड़े तूफ़ान के बिना ही उखड़ गईं। हम विस्थापित रह गए — न शहर के हो पाए, न गाँव के। केवल स्मृतियों में शेष है 'घर'। शायद मँझधार में होना ही हमारी किस्मत में लिखा है — और वहीं छटपटाते हुए, एक दिन मृत दुनिया में गुम हो जाना है, बिना किसी चीख़ और निशान के।
~आमना
"इतना कुछ हो जाता है, फिर भी हम आह तक नहीं भरते!"
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