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Showing posts from October, 2025

"दिवाली बीत गई"

  हर शोर-शराबे के बाद, दबे पाँव काट खाने दौड़ता हुआ सन्नाटा आता है। उत्सवों में चमक-दमक होती है, लोगों का साथ होता है, लेकिन उसके बाद रह जाता है — अकेलापन, जो दूर-दूर तक पसरा होता है। बेमन ही सही, लेकिन हम बार-बार उसी सन्नाटे की ओर लौटते हैं। मन जानता है कि संगत क्षणिक है और अकेलापन शाश्वत। अकेलेपन में यादों का रेला है, विचारों की भिड़ंत है और अंतहीन इंतज़ार है। बहुत सारे डर भी हैं, जिनसे आज नहीं तो कल आमना-सामना होना तय है। इस सबके बावजूद, आदमी अकेलेपन में कराहता नहीं है, मन ही मन मुस्कुराता है। दिन भर में इकट्ठा की गई ध्वनियों को गीत में बुनकर गुनगुनाता है। दिन भर हम अकेलेपन से भागते फिरते हैं — व्यस्तता का हाथ थामते हैं, नई-नई योजनाएँ बनाते हैं, पुरानी योजनाओं को तोड़ते-मरोड़ते हैं — और शाम होते-होते बस लौटने का मन करता है। कहाँ? शायद 'घर'। लेकिन एक बार घर से निकलने पर, वहाँ जाया तो जा सकता है, लौटा नहीं जा सकता। त्योहार मनाने से ज़्यादा, वे घर जाने के बहाने होते हैं — थोड़ी देर के लिए पाँवों की गति को विश्राम देने के लिए, जीवन की गंभीरता को कुछ समय के लिए ताबूत में बंद करन...

"एक और दिन"

  बहुत कुछ लिखने का मन है। अभी बहुत कुछ पढ़ना बाक़ी  है, और उससे भी ज़्यादा — बहुत कुछ देखना है, बहुत कुछ सीखना है, और बहुत जीना है। जितना जिया है, उसमें भी बहुत अधिक जीने की संभावना थी, लेकिन अभी जीवन बहुत बचा है — इस मोह ने हमेशा बहुत जीने से रोका है। पिछले तीन सालों से ऐसा लग रहा है जैसे जीवन एक जगह ठहर गया हो, जम गया हो। इन तीन सालों के विवरण में एक तरह की रिक्तता है, और साथ ही एक ही स्थान पर पड़े‑पड़े सड़ने  की गंध है। एक कमरा है, जिसमें दुनिया और उसकी स्मृतियों का बिखराव है। कुछ खिड़कियाँ पारदर्शी हैं — जिनके ज़रिए आँखों ने अब तक बाहर की दुनिया से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा। चार दीवारें हैं, जिनपर ताज़े सुराग़ है — स्वयं को चाक करके ख़ाक कर देने के। लेकिन शरीर शव नहीं बना; जीने की इच्छा और भी तीव्र हो गई है। एक दरवाज़ा है, जिसके खुलने से भय और बंद होने से संतोष का अनुभव होता है। ज़मीन का एक टुकड़ा है, जिसमें दफ़न हैं त्रासदियाँ। एक बिस्तर है, जिस पर लोटती हैं अभिलाषाएँ। जब सूर्य की किरणें अंगड़ाई लेते हुए कमरे में प्रवेश करती हैं, तो जैसे हर अधमरी चीज़ में जान आ जा...

"उदासियों का मौसम"

  जैसे-जैसे जाड़े नज़दीक आने लगते हैं, वैसे-वैसे कुछ उदासियाँ गहरी नींद से उठकर हमारे बग़ल में आकर चुपचाप बैठने लगती हैं। उनका उद्देश्य हमें और उदास करना बिल्कुल भी नहीं होता। वे तो बस किसी बीते दौर में अपने होने का एहसास दिलाने आती हैं, और याद दिलाती हैं कि उदासियों से कहीं बड़ा है जीवन, और उनसे भी बड़े हैं हम। वे ठंडी हवा की साँय-साँय में गर्मजोशी से हमारे साथ होती हैं — हमारी दूर तक पसरी हुई चुप्पी में हमें पुचकारती हुई। हमारे अतीत का चिट्ठा खोलकर यूँ बैठती हैं, मानो कोई यायावर बरसों बाद अपने घर लौटकर अपने कमरे का दरवाज़ा खोल रहा हो। हमारे बिलखने से पहले ही वे हमें धकेल देती हैं उन जगहों पर, जहाँ लगभग तय था कि हम जूझ नहीं पाएँगे — लेकिन हम जूझे, और क्या ख़ूब जूझे। अपनी चुप्पी तब अखरने लगती है, जब हाल-फिलहाल की उदासियाँ हमें अपना केंद्र मानकर, हमारी ही चुप्पी के साथ हमारे चारों ओर मंडराने लगें। ऐसा लगता है जैसे उन्हें पास खींचकर अपने साथ बिठा लिया जाए और दुनिया-जहान की बातें की जाएँ — ताकि हम दोनों एक-दूसरे की चुप्पी के शांत लेकिन गहरे वारों से बच सकें। हर उदासी, अपने उद्गम ...