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"एक और दिन"


 

बहुत कुछ लिखने का मन है। अभी बहुत कुछ पढ़ना बाक़ी है, और उससे भी ज़्यादा — बहुत कुछ देखना है, बहुत कुछ सीखना है, और बहुत जीना है। जितना जिया है, उसमें भी बहुत अधिक जीने की संभावना थी, लेकिन अभी जीवन बहुत बचा है — इस मोह ने हमेशा बहुत जीने से रोका है।

पिछले तीन सालों से ऐसा लग रहा है जैसे जीवन एक जगह ठहर गया हो, जम गया हो। इन तीन सालों के विवरण में एक तरह की रिक्तता है, और साथ ही एक ही स्थान पर पड़े‑पड़े सड़ने की गंध है।

एक कमरा है, जिसमें दुनिया और उसकी स्मृतियों का बिखराव है। कुछ खिड़कियाँ पारदर्शी हैं — जिनके ज़रिए आँखों ने अब तक बाहर की दुनिया से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा। चार दीवारें हैं, जिनपर ताज़े सुराग़ है — स्वयं को चाक करके ख़ाक कर देने के। लेकिन शरीर शव नहीं बना; जीने की इच्छा और भी तीव्र हो गई है।

एक दरवाज़ा है, जिसके खुलने से भय और बंद होने से संतोष का अनुभव होता है। ज़मीन का एक टुकड़ा है, जिसमें दफ़न हैं त्रासदियाँ। एक बिस्तर है, जिस पर लोटती हैं अभिलाषाएँ।

जब सूर्य की किरणें अंगड़ाई लेते हुए कमरे में प्रवेश करती हैं, तो जैसे हर अधमरी चीज़ में जान आ जाती है। किरणों की तेजी के साथ‑साथ, धीरे‑धीरे हरकतों में भी गति आने लगती है। तब तक पिछली रात के भयानक सपनों ने आत्महत्या कर ली होती है। सिरहाने वही सपने उठते हैं, जिनमें शेष होती है आशा। एक कप चाय में घुली होती है दिनभर की दिनचर्या। इस तरह, एक और दिन जीने की ओर अपना क़दम बढ़ाता है।

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