Skip to main content

"दिवाली बीत गई"

 


हर शोर-शराबे के बाद, दबे पाँव काट खाने दौड़ता हुआ सन्नाटा आता है। उत्सवों में चमक-दमक होती है, लोगों का साथ होता है, लेकिन उसके बाद रह जाता है — अकेलापन, जो दूर-दूर तक पसरा होता है।

बेमन ही सही, लेकिन हम बार-बार उसी सन्नाटे की ओर लौटते हैं। मन जानता है कि संगत क्षणिक है और अकेलापन शाश्वत। अकेलेपन में यादों का रेला है, विचारों की भिड़ंत है और अंतहीन इंतज़ार है। बहुत सारे डर भी हैं, जिनसे आज नहीं तो कल आमना-सामना होना तय है। इस सबके बावजूद, आदमी अकेलेपन में कराहता नहीं है, मन ही मन मुस्कुराता है। दिन भर में इकट्ठा की गई ध्वनियों को गीत में बुनकर गुनगुनाता है।

दिन भर हम अकेलेपन से भागते फिरते हैं — व्यस्तता का हाथ थामते हैं, नई-नई योजनाएँ बनाते हैं, पुरानी योजनाओं को तोड़ते-मरोड़ते हैं — और शाम होते-होते बस लौटने का मन करता है। कहाँ? शायद 'घर'। लेकिन एक बार घर से निकलने पर, वहाँ जाया तो जा सकता है, लौटा नहीं जा सकता।

त्योहार मनाने से ज़्यादा, वे घर जाने के बहाने होते हैं — थोड़ी देर के लिए पाँवों की गति को विश्राम देने के लिए, जीवन की गंभीरता को कुछ समय के लिए ताबूत में बंद करने के लिए। हालाँकि, घर में दाख़िल होते ही, वापस जाने का दुःख भी साथ दाख़िल होता है। हम एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य में जीते हैं।

घर के दरवाज़े, दीवारें, कमरे, छत, सामान — सबको आँखों से टटोलते हुए स्मृतियों से मिलाते हैं। जितना मेल खाता है, उससे आश्वस्त होते हैं; बदलाव से हताश, और हमेशा की तरह, उम्मीद के लिए एक कोना छोड़ देते हैं।

दिवाली बीत गई, घर ख़ाली होने लगे। सब जा रहे हैं — घर की ताज़ा स्मृतियाँ लेकर, फिर से कभी नहीं पूरी होने वाली घर लौटने की इच्छा के साथ।

Comments

Popular posts from this blog

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...

"पिता: नायक या खलनायक?"

  आँखों ने पिता के चेहरे से ज़्यादा उनके पांव की तस्वीर क़ैद की है।  कत्थई रंग की एक जोड़ी चप्पल, जिसकी उम्र पिता की उम्र के बराबर ही रही होगी, उसे सीढ़ी पर रखे हुए देखने में पिता के पांव की छाप साफ़ नज़र आती है। पिता झुक कर चलने लगे हैं, लेकिन सारी उम्र रीढ़ का महत्व बताते आए हैं। सीधे नहीं बैठने पर टोकते हैं और सीधे रास्ते पर चलने के लिए दाएं-बाएं चलते हुए बताते हैं। पहले फटकार देते थे। फिर भी हम ऊट-पटांग काम करने से पीछे नहीं हटते थे। पिता का रोकना-टोकना, जीवन जीने के आड़े आता रहा। हम भाई-बहनों ने अपने जीवन की फ़िल्म का खलनायक, पिता को अपनी छोटी-सी बैठकी में सार्वजनिक तरीके से घोषित कर दिया। हम सब ने संकल्प लिया कि करेंगे तो अपने मन का। पिता का ज़माना गुज़र गया, यह नया ज़माना है — हम जैसों का, जो हमारे सामने खड़ा है। पिता का अनुशासन तब तक ही है जब तक हम सब घर में हैं। घर से निकलते ही, हम पतंग बन जाएंगे। घर छूटा, पढ़ने निकले — पतंग तो क्या, कटी पतंग बन गए। फिर समझ आया, पतंग को आसमान में उड़ते रहने के लिए अनुभवी हाथों में उसकी डोर होनी चाहिए। जिस पिता को हम खलनायक मान बैठे थे...