"पीछे छूटता घर, आगे आता घर"


लोग सोचते है कि
शहर बसता है उनकी महत्वाकांक्षाओं  
और उनके खालीपन से।

वास्तव में 
शहर बसता है,
केवल ज़रूरतों से। 




घर जहाँ आत्मीयता और शान्ति वास करती है वहां से निकल कर अनगिनत इमारतों को निहारते हुए जब रेलवे स्टेशन पंहुचा तब लगा कि मैं अकेले नहीं हूँ जो विस्थापन का शिकार हुआ| जब पता लगता है कि जो आप पे गुज़र रही है वो आपबीती हर रोज़ सैकड़ो लोगों के साथ गुज़रती है तो थोड़ा मन को ढाढ़स मिलता है| पर मन तो अटका था घर की चौखट पे जहाँ सुकून गले लगाता और अपनों के बीच अनबन का आना-जाना लगा रहता। 

(गाड़ी नंबर 12003 प्लेटफार्म नंबर 6 पे लग चुकी है|) 

मैं अपने सामान को उठता हूँ अपने कोच में चढ़ता हूँ और साथ में मेरे  ज़ेहन में एक ख्याल भी चढ़ा जिस तरह लोग अपने अपने कोच पे चढ़ते है| मुझे अपनी सीट तो मिल गयी पर अब तक बद्तमीज़ ख्याल ने सवाल की शक्ल ले ली|


हालांकि सवाल आसान था कि एक मकान बनाने में कितने दिन और क्या-क्या सामान लगता है? 

जेहन ने बिना सोचे जवाब दिया कि रकम और ज़्यादा से ज़्यादा कुछ साल और लाखों ईट, मौरंग, बालू, मज़दूर, मिस्त्री इत्यादि| जवाब का पूरा होना ही था कि पीछे छोड़ के आये हुए घर की स्मृति ने सवालों का बक्सा खोला।

चाय..... गरमा-गर्म चाय......की आवाज़ ने मेरे ज़हन में चल रही सवालों की गाड़ी को लाल झंडी दिखाई ही थी कि सामने वाली सीट पे एक महिला आ के बैठ गयी| रेलगाड़ी की छुक-छुक शुरू हो चुकी थी पर मेरे सवालों की दुनिया में बवाल मचा हुआ था|

 ......

घर क्यों छोड़ना पड़ता है?

क्या सपने अपने निगल लेते है?

क्या आने वाला शहर मुझे सर पे छत के साथ मुझे एक कोना दे पायेगा जहाँ मैं, मैं बन के रह सकूँ?

क्या मैं घर से दूर माँ-बाप की उम्मीदों पे खरा उतर पाउँगा? 

......

मैं और मेरे सवालों का सिलसिला चल ही रहा था कि सामने बैठी महिला की आवाज़ ने मेरे सवाल जो घोड़े की रफ़्तार से भाग रहे थे मनो उसपे लगाम लगा दी हो | शायद वो मेरी मनोदशा समझ चुकी हो जैसे एक माँ अपने बच्चे की भूख भाप लेती है या मेरी आँखों ने बिना कुछ बोले सब बोल दिया हो। 

(भाव छुपाने में आँखों ने हमेशा धोखा दिया और होंठों ने हमेशा वफ़ादारी दिखाई।)

महिला: दिल्ली जा रहे हो? 

मैं: जी! 

महिला: लगता है....... "पहली बार घर से दूर का रास्ता माप रहे हो?" 
(एक और सवाल का पहाड़ मेरे सर के ऊपर फूटा)
 
मेरे भीतर जितना साहस था उसे जुटा के, मैंने बोला-"जी" 

महिला: हम्म्म! 

(हम्म का अविष्कार शायद तब हुआ होगा जब लगा हो कि ख़ामोशी से कुछ मतलब न निकाला जाए और जब बहुत कुछ बोलना हो पर शब्दकोश में शब्द धुँधले दिख रहे हो।)

बिना कहीं रुके ही हमारे डिब्बे में चुप्पी चढ़ी। पर टी-टी को ये बात रास नहीं आयी। टिकट को ऐसे चेक करा मानो ज़मीन-ज़ायदाद के पेपर का मुआइना किया जा रहा हो। इस बीच मेरी नज़र महिला पे पड़ी तो वो शायद अब मेरे ही जैसे ख़्यालों की गाड़ी पे बैठ चुकी थी जिससे मैं अभी-अभी उतरा ही था। 

मुझसे यह देख के रहा नहीं गया। 
आख़िरकार पूछ बैठा-" किस ख़्याल में आप खोयी है?" 

वो: मुझे "आशा" बुला सकते हो। 
कहीं खोई नहीं हूँ। बस तुम्हें देख के यादों की पगडंडी से सैर पे चली गयी थी। क़रीब-क़रीब 12 साल पहले मैं भी तुम्हारे जैसे ही रेलगाड़ी पर मैं, मेरे सपने और कुछ सवाल चढ़े थे। पहली बार घर से दूर और अपनों से मीलों दूर, दिलवालों के शहर "दिल्ली" अपने दिल को बहलाते हुए सफ़र तय किया था। कथित तौर पे घर से दूर स्वाधीनता महसूस होती है पर सवालों ने इस कदर जकड़ रखा था जैसे यात्री अपने सामानों को चैन से जकड़ते है। 

(मैं शायद तैयार नहीं था अपने भावों को वाक्यों की ध्वनि में सुनने के लिए इसलिए आशा की बात काटने के लिए चाय का सहारा लिया।)

मैं: क्या आप चाय पियेंगी? 

आशा: बिल्कुल एक मसाला चाय.....

(दो मसाला चाय) 

आशा: (चाय की चुस्की के साथ)  
मुझे शुक्रिया कहना था पर किसी ने अभी तक अपना नाम नहीं बताया। 
(जब बड़ी बहन छोटे भाई की नटखट हरकतों को निहारती है तब मुस्कुराती है वैसी मुस्कान चेहरे को रोशन कर रही थी।) 

मैं: मैं ........ उमंग। इसमें शुक्रिया की क्या बात है। 

आशा: नए शहर जा रहे हो तो किसी से शुक्रिया की उम्मीद मत रखना। 
पर हां, जहाँ मिले वहाँ ले लेना। 

उमंग: दिल्ली मतलब आप वहाँ काम करती है? 

आशा: कुछ ऐसा ही समझ लो। लखनऊ जन्मभूमि और दिल्ली कर्मभूमि। मैं दिल्ली पढ़ने के लिय आयी थी। सपनों को उड़ान देने के लिए। कुछ सपनें टूटे तो बहुत से पूरे भी हुए। छोटे शहर के लोग बड़े सपनें देखते है और उन्हें पूरा करने के लिए बड़े शहर का रास्ता नापना ही पड़ता है। पढ़ाई पूरी की, नौकरी के लिए इधर-उधर भटकी। कभी-कभी मन भी हुआ कि वापस लौट जाऊं पर एक सवाल ने हमेशा रोक दिया-" आयी क्यों थी?"  बस इस आयी क्यों थी के सवाल ने हाथ-पैर मारते रहने के लिये हमेशा साहस दिया। नया शहर कभी भी पुराने शहर की कमी पूरी नही  करता पर अपनी जगह बनाता रहता है जैसे धीमें-धीमें रेत गिरती है रेत की घड़ी से। कहते है ना वक़्त को अपना वक़्त दो तो सब ठीक हो जाता है वहीं मैंने भी करा, छोड़ दिया। कुछ वक़्त लगा फिर आदत हो गयी। दिन गुज़रे फिर हफ़्ते....महीने और साल अब देखो 12 साल हो चुके है।
 
उमंग: मतलब घर एक बार छूटता है तो छूट ही जाता है! 

आशा: घर कभी नहीं छूटता बस हम कुछ और चीज़ों को पकड़ते है जिससे हमारी पकड़ कमज़ोर हो जाती है। घर से दूर भी हम घर बनाते रहते है बिना जाने। हमें याद रखना चाहिए कि हम जीवन के हर पड़ाव में सिर्फ़ किसी एक चीज़ को इतनी जोर से न पकड़ ले कि जब वो छुटे तो हथेली पे उम्र भर के लिए घाव रह जाएं। 

( मैं उस छोटे बच्चे की तरह हो गया जिसने ज़िद्द कर ली हो कि उसे वो खिलौना चाहिए जो उसके दोस्त के पास था।)
 
उमंग: पर घर आख़िर घर ही होता है जहां आप के अपने हो। आप, आप बन कर रह सको। 

आशा: आप के अपने आपके साथ ही रहेंगे हर जगह आपकी स्मृतियों में। जीवन के पड़ाव जब दरवाज़े पे दस्तक देते है तब दरवाज़ा बंद रखने का विकल्प नहीं होता है। 

उमंग: अब जब आप अपने घर जाती है तो क्या पहले जैसा लगता है? 

आशा: घर जितनी बार जाओ वो हमेशा अपनी बाहें खोला मिलता है वही सुगन्ध लिये। मेरे जाने पे चौखट को आहट हो जाती है मानो कि वो कितने समय से कोहनी टिकाये मेरी राह देख रहा हो। जब मैं जाती हूँ माँ-पापा की ख़ुशी सातवें आसमान पे होती है। पर आखिर में लगता है कोई मेहमान कुछ दिनों के लिए ही आया है। पर माँ के पकवान और पापा का गूंगा दुलार सब भुला देता है कि कभी घर से गयी भी थी। 

ख़ैर! यहीं तो जीवन है। जिस पल में हो उस पल में रहो।  खाओ, पियो, मस्त रहो। 

(छुक-छुक की धीमी गति अब रुकने के कगार पे थी।) 

आशा: दिल्ली आ गया। चलो! तुम अपना ख़्याल रखना और याद रखना दिल्ली दिल वालों की है। 

( मैं ट्रैन से जब उतरा तब मेरे पास सपने और सामान था और जो सवाल चढ़े थे उनको उनकी मंज़िल(ज़वाब) मिल चुकी थी क्योंकि नीरस उमंग को आशा, आशा दे गई घर से दूर,घर बनाने के लिए|) 


~आमना









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