"रमिया"





 






गाड़ी आज अपने निर्धारित समय से पहले ही प्लेटफार्म पे पहुंच चुकी थी|

{कभी-कभी कुछ चीज़ें हमारे निर्धारित समय से बहुत पहले ही हो जाती है|}



मैं फरिहा, अपने नाम की तरह ख़ुश और मुस्कराहट लिए घूमती--फिरती, छोटे कसबे में पली बड़ी|

छोटी सी जगह से होना और बड़े ख़्वाब  देखना, एक वक़्त पे बहुत बड़ी बात और कोई आम सी बात होती है|

मुझे आसमां में उड़ना और ज़मीन पे पैर भी टिकाये रखना था तो ज़िन्दगी में औरों के मुताबिक़ ज़्यादा हाथ-पैर मारना था|


जब बालिग़ हुई तो अब्बा ने बियाह जैसे रिवाज़ को किनारे करके और रिश्तेदारों को नकारते हुए, मुझे भेज दिया; बड़े शहर| 


(बड़ा शहर,आबादी के चलते बड़ा नहीं; अपने बड़े शोषण और बड़े इनाम के लिए बड़ा कहा जाता है| बड़े से शहर में मुझे अपने छोटी-सी जगह के संस्कार के साथ बड़ा बनना और टिकना था|

जो सीख चुकी थी, उससे ज़्यादा सीखना और लड़ना था|

शहर को अपने से ज़्यादा अपनाना था पर शहर का होके ही नहीं रह जाना था|)


हज़ार रणनीतियों को शांत कर के बम्बई की गाड़ी पे बैठ गयी बस अब इंतज़ार था तो गाड़ी के चलने और फिर जल्दी से "सपनों की नगरी" पहुंचने का|


(जब हम किसी चीज़ को शिद्दत से चाहते है तो वक़्त को रौशनी की रफ़्तार क्यों देना चाहते है?)


मुझे बम्बई तक का सफर ख़ल रहा था पर आने वाला सफर कितना लम्बा होगा इसका अंदाज़ा भी नहीं था|


आंखें चौंधिया गयी जब बम्बई पहुंच कर, बम्बई देखा, रात हो रही थी पर शहर अब भी जाग रहा था|

भीड़ में एक जाना पहचाना चेहरा,भीड़ को चीरते हुए मुझ तक पंहुचा और बोला, घबराओ नहीं, यह शहर कभी नहीं सोता है| ख़ैर, अब आलसी इंसान आ गया है तुम्हारे शहर, थोड़ा आलस इस शहर को देगा- रमिया को गले लगाते हुए मैंने जवाब दिया| 


रमिया, दोस्त या ये समझ लिए मेरी बचपन की धरोवर| रमिया से मेरी पहली मुलाकात स्कूल में हुई थी वो पहली सीट पर बैठी थी और उसने मुझसे बोला था मेरे साथ बैठ जाओ| उस दिन से स्कूल के बारह साल रमिया और फरिहा के एक साथ गुज़रे| रमिया पढ़ने के लिए बम्बई आ गयी थी और मैंने दाखिला इलाहबाद विश्विद्यालय में ले लिया था पर हम इस बीच एक दूसरे को खत लिखते रहते थे|5  साल बाद, मैं अब रमिया से मिल रही हूँ, फिर भी लग रहा है अभी कल ही तो मिले थे|

(कुछ लोग हमसे दूर होकर भी हमारे पास ही लगते है|) 


रमिया ने मुझे उसका बम्बई थोड़ा-थोड़ा करके महीने भर में दिखया|उसका बम्बई, मेरे सोचे बम्बई से काफी अलग था| उसके बम्बई में सिर्फ खुशियां और अच्छाइयाँ थी| मुझे कभी समझ में नहीं आया कि कोई इतना सकारात्मक कैसे हो सकता है पर रमिया थी| मानो किसी दुःख में भी रमिया सुख ढूंढ लेती थी| रमिया जितनी खुशमिज़ाज थी उतनी ही सच्ची|मुझे रमिया से ईर्ष्या थी पर प्यारी ईर्ष्या|


दो महीने रमिया के पास कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला जैसे बारह साल स्कूल के पलक झपकते हुए छूमंतर हो गए थे| अब मैं अपनी जेब अनुसार एक कमरे में रहने लगी थी वो कमरा इतना बड़ा था कि हाथ फैलाते ही दीवारों को छुआ जा सकता था पर उन दिनों मुझे वो किसी महल से कम नहीं लगता था| कमरे में एक खिड़की थी जिससे बाहर देखते ही भीतर की कड़वाहट गायब हो जाती थी| खिड़की से बाहर मुझे बहुत किरदार मिले,जिन्हे चुरा के मैंने अपनी कहानियों में कैद किया और कुछ को आज़ाद भी| दिन में,मैं भटकती कि कोई काम मिल जाये| कभी भटकने से ऊब जाती तो जहाँ नाटक हो रहा वहाँ कुछ देर स्थिर हो जाती| कभी घर में रुक कर, मंटो तो कभी जौन एलिया में ग़ुम हो जाती| फिर कुछ दिन बाद फिर भटकना शुरू कर देती|(काफी देर एक जगह खड़े रहने में पैर सुन्न पड़ जाते है|)


ऐसे ही भटकते-भटकते एक दिन एक फिल्म में डायलाग राइटिंग करने का मौका मिला और उसके बाद बहुत दिनों तक कोई काम नहीं मिला| पर सपनों की नगरी में रह कर अगर सपना देखना छोड़ देंगे तो क्या मतलब इस नगरी में रहने का| अपनी लिखी स्क्रिप्ट लेकर कई जगह गयी पर कभी कुछ जवाब नहीं मिला तो कभी ये कैसी स्क्रिप्ट है कह कर मेज़ पर पटक दिया गया | उन दिनों एक जैसी ही कहानियां अलग-अलग चेहरों के साथ परदे पे पेश की जाती थी| कोई नयी-सी कहानी लेकर सामने आता तो उसे सिरे से ख़ारिज कर दिया जाता, जनता तक पहुँचने से पहले ही | पर कुछ लोग थे जो कुछ नया करना चाहते थे पर उनकी जेबें ख़ाली थी| 


जब बहुत निराश होती तो रमिया से बात करने का मन करने लगता| (उपरवाले का तोहफ़ा ही तो है कुछ लोग जिनको निराशा में आप, रोशनी मिलने की उम्मीद के साथ आप खुदको उनके सामने पेश कर सकते है|) रमिया मुझे कहती है इस नगरी में, न सपने सोते है न किस्मत| तुम्हारी लिखी फिल्म एक दिन ज़रूर परदे पे आएगी और लोगों के दिलों पे छा जाएगी| रमिया हम जैसी ही थी पर हमसे काफी अलग| 



इस बीच एक थिएटर ग्रुप का हिस्सा बनने का मौका मिला| इस ग्रुप की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि जो भी इसका हिस्सा था, सब निडर थे| वो सब करना चाहते थे जो उन्हें करना था| नाटक सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं करते थे, लगता था कि नाटक उनकी ज़िन्दगी हो| सबके पास अलग-अलग कहानियां थी, अलग-अलग से अनुभव पर सबको जोड़ने वाली एक कड़ी थी वो थी उनकी निडरता| मैंने कई नाटक लिखे पर "कब तक" मेरे दिल के बेहद करीब है|"कब तक" नाटक एक द्वंद्व था कि प्रेम कब तक होगा और कब तक रहेगा|"कब तक" को लोगों द्वारा खूब सराहया गया| फिर वक़्त कभी नहीं थमा| मेरे लिखे कई नाटक, लोगों तक पहुंचे| मेरी पहली किताब जो एक कहानी संग्रह थी वो भी प्रकाशित हुई|लोगों के बीच थोड़ा बहुत नाम हो गया| डायलाग राइटिंग के लिए अलग-अलग जगह से बुलावा आने लगा| आज बम्बई आये पांच साल हो चुके है अब लग रहा है कि बम्बई ने इनाम देना शुरू किया|  रमिया की बात सच होती नज़र आ रही थी,"न सपने सोते है,न किस्मत|" 

बीतें 3 सालों में मैं इतनी व्यस्त हो गयी थी कि एक ही शहर में रहने के बावज़ूद रमिया से नहीं मिल पायी| पर हाँ, दो-तीन बार कॉल पे बात ज़रूर हुई|(टेक्नोलॉजी जितनी हमे पास लाती है उतनी दूर कर देती है|)


मेरी पहली स्क्रिप्ट जिसपे अब धूल की परत जम चुकी थी उसे झाड़ने का वक़्त आ गया| मेरी फिल्म बनाने के लिए कुछ निडर लोग मिले और विश्वास करने वाले प्रोडूसर्स| फिल्म की शूटिंग जनवरी ,2003 में शुरू हुई तो लगा कि कागज़ पे लिखे किरदार कूद के असल दुनिया में मेरे सामने है| मई तक पूरी फिल्म ख़त्म हो चुकी थी| अब बस फिल्म को परदे पे आना बाकी था| बम्बई लौटते ही सबसे पहले रमिया से मिलने का दिल किया|

 

रमिया के घर की ओर पैर अपने आप दौड़ने लगे क्यूंकि बताने को बहुत कुछ था| दरवाज़े पे दस्तक देते ही रमिया ने अपनी वही पुरानी मुस्कराहट के साथ दरवाज़ा खोला पर कुछ फीकापन-सा था| रमिया को मैंने गले लगया और अपना-सा लगा जो इतने सालों से बम्बई रहते हुए कभी नहीं लगा| मुझे बताना था रमिया से कि मेरी फिल्म आने वाली है पर उसको देख के कुछ अजीब-सा लग रहा था| उससे पूछने पर पता लगा कि उसे ब्लड कैंसर है| पिछले साल उसे ये पता चला था| कुछ महीने और हूँ इस दुनिया में, फिर किसी और दुनिया में चली जाउंगी| उसके बात करने के अंदाज़ में भी कोई दुःख या अफ़सोस नहीं नज़र आ रहा था| मैं एकटक रमिया को देख रही थी मेरा हलक बिना कुछ बोले ही सूख रहा था| अचानक से उसने बात पलटे हुए पूछा कि, "क्या हुआ तुम्हारी फिल्म का?"


हाँ, बन चुकी है कुछ महीनों में परदे पे भी आ जाएगी|

 

मैंने कहा था न एक दिन तुम्हारी फिल्म ज़रूर आएगी| अब आ रही है फिर देखना लोगों के दिल पे भी छा जाएगी|

पर इस बात का अफ़सोस रह जायेगा अगर मैं देख नहीं पायी|


मैं इससे पहले कुछ बोल पाती रमिया कहती है किसी बात का तो अफ़सोस होना चाहिए और हँस देती है|

(मेरे अंदर का हर अंग रो रहा था कि जिसके साथ आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी साथ गुज़री, जिसने उतार में साथ दिया अब जीवन में चढ़ाव का दौर आया तो वो दूर जा रही है|)

("हमारे खिलने में सबसे बड़ा हाथ उनका रहा जो मुरझा गए|")


रमिया के साथ, उसके घर पे मैं आख़िर तक रुकी पर उसके आख़िरी दिनों से ठीक पहले तक मैं वापस लौट आयी,उस कमरे में जिसने मुझे बिखरते, बिलकते हुए देखा था| जिस खिड़की ने मुझे सहारा दिया था| रमिया से आख़िरी बार मिलकर बता दिया था कि यार, "मैंने तुझे हमेशा हँसते हुए देखा है खुली आँखों के साथ पर बंद आँखों के साथ हमेशा के लिए चुप होते हुए मैं नहीं देख सकती|"


बाबू मोशाय जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं...ये कहकर रमिया ठहाके मार के बड़ी देर तक हँसती है|


(रमिया हम जैसी ही थी पर हमसे बहुत अलग| दुनिया के हिसाब से उसके पास दुःख थे पर उसके पास दुःख की कोई अलग ही परिभाषा थी|)


(मौत उसके लिए, बस एक पड़ाव था, उससे ज़्यादा और कुछ नहीं|)


नवंबर 14 को उसने आख़िरी बार सांस ली| उसके भाई ने मुझे कॉल करके बताया| मेरे दिमाग़ के पास हिम्मत नहीं थी,उसे आख़िरी बार देखने की, पर दिल बार-बार ज़ोर से धड़कते हुए कह रहा था एक आख़िरी बार ही सही|

मैं उसके घर पहुंची,दरवाज़ा खुला था| रमिया की आँखें बंद थी पर उसका चेहरा चमक रहा था| चारों तरफ शान्ति थी शायद जाते-जाते रमिया ने सबकी दुःख की परिभाषा बदल दी थी| सब अपने-अपने हिस्से की रमिया को उस वक़्त जी रहे थे| 

(“मौत, मरे हुए को हमेशा के लिए शांत और ज़िंदा लोगों को कुछ वक़्त के लिए अशांत कर देती है |”)


कथित तौर पे रमिया हमसे काफी दूर चली गयी थी पर वो हमारे और पास आ चुकी थी| मेरी फिल्म परदे पे आ चुकी थी और जैसे रमिया ने कहा था वैसा ही हुआ, लोगों के दिलों पे छा भी गयी| हर किसी से सकारात्मक समीक्षा ही मिली| 

वाहवाहियों के बाद भी एक अफ़सोस रह गया कि फिल्म रमिया को नहीं दिखा पायी|

(शायद जीवन में किसी न किसी चीज़ का अफ़सोस रह ही जाता है|)


~आमना 


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