Skip to main content

"व्यस्तता का साथ"



जब किसी भाव या अतीत से हमें भागना होता हैं तब व्यस्तता का कवच पहनना सबसे आसान लगता है| 

(भागना इंसान की पहली प्रवृत्ति है|)

व्यस्तता का चुनाव करने में कितनी बार हताश होना पड़ता है लेकिन एक बार व्यस्तता का हाथ थाम लो तो हताश होने या हताशा के बारे में विचार करने का समय नहीं मिलता| हताशा का जन्म अपेक्षाओं के कारण होता है और इंसान की मृत्यु तक इंसान को हर तरह से ये सताती है|

(इंसान बंद आँखों से ज़्यादा सपने देखता है और खुली आँखों से देखे गए सपनों को भगवान भरोसे छोड़कर बैठता है|)

मैंने लोगों का हाथ थामा और कुछ समय के उपरान्त लोगों ने हाथ झटक कर दूर जाना तय किया, मैं वहीं उनकी पकड़ की स्मृति के साथ देखती रही उनका ओझल होना और आँख गड़ा कर बैठी रही, उनके वापस लौटने की उम्मीद में|

(उम्मीद इंसान को धीमे-धीमे मारती है|)

मैं कुछ सपनों के पीछे भागती रही मानो जीवन में केवल एक लक्ष्य हो, पीछा करना| सपनों में जीना चुना और सपनों को वास्तविकता में लाने की पूरी कोशिश की, पर सपनों ने कल्पना में रहना चुना| फिर जीवन में आगे बढ़ने का सोचा पर अतीत की मज़बूत पकड़ में जकड़ी रही| 

रात को सोना और सुबह उठना| हताशा के बादल को लगातार सर पर मंडराते हुए पाया| लेकिन एक सुबह, कुछ हुआ, कुछ अलग-सा, होश आया, पहली बार आँख पूरी खुली और चुना, व्यस्तता का साथ|

(व्यस्तता जीवित व्यक्ति के लिए मोक्ष है|)


~आमना 

Comments

  1. Exactly व्यस्तता जीवित व्यक्ति के लिए मोक्ष हैं| lekin ye baat Hume bahut kuch experience krne k bd hi smjh aati h

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

"पिता: नायक या खलनायक?"

  आँखों ने पिता के चेहरे से ज़्यादा उनके पांव की तस्वीर क़ैद की है।  कत्थई रंग की एक जोड़ी चप्पल, जिसकी उम्र पिता की उम्र के बराबर ही रही होगी, उसे सीढ़ी पर रखे हुए देखने में पिता के पांव की छाप साफ़ नज़र आती है। पिता झुक कर चलने लगे हैं, लेकिन सारी उम्र रीढ़ का महत्व बताते आए हैं। सीधे नहीं बैठने पर टोकते हैं और सीधे रास्ते पर चलने के लिए दाएं-बाएं चलते हुए बताते हैं। पहले फटकार देते थे। फिर भी हम ऊट-पटांग काम करने से पीछे नहीं हटते थे। पिता का रोकना-टोकना, जीवन जीने के आड़े आता रहा। हम भाई-बहनों ने अपने जीवन की फ़िल्म का खलनायक, पिता को अपनी छोटी-सी बैठकी में सार्वजनिक तरीके से घोषित कर दिया। हम सब ने संकल्प लिया कि करेंगे तो अपने मन का। पिता का ज़माना गुज़र गया, यह नया ज़माना है — हम जैसों का, जो हमारे सामने खड़ा है। पिता का अनुशासन तब तक ही है जब तक हम सब घर में हैं। घर से निकलते ही, हम पतंग बन जाएंगे। घर छूटा, पढ़ने निकले — पतंग तो क्या, कटी पतंग बन गए। फिर समझ आया, पतंग को आसमान में उड़ते रहने के लिए अनुभवी हाथों में उसकी डोर होनी चाहिए। जिस पिता को हम खलनायक मान बैठे थे...

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"चुप्पियाँ"

अब मुझे चुप रहना अजीबो-ग़रीब लगने लगा है। सच कहूँ तो, यह अपनी अनुभव की गई भावनाओं के साथ धोखा करने जैसा है। हम अक्सर चुप रहने का यह कारण देकर खुद को सवालों की लंबी सुरंग में फँसने से बचा लेते हैं कि हमारे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। लेकिन क्या सच में शब्दों का ब्रह्मांड इतना सीमित है? या फिर हम शब्दों की खोज में प्रयास करने से कतराते हैं? चुप्पी किसी सवाल का जवाब हो सकती है, लेकिन जब एक चुप्पी का जवाब दूसरी चुप्पी बनने लगे और फिर सैकड़ों चुप्पियाँ एक-दूसरे को धकेलती हुई हमारी ओर कुचलने के भाव से बढ़ें, तो क्या यह गहन शोध का विषय नहीं बन जाता? हम अनगिनत भाषाओं की हवा में साँस लेते हैं, लेकिन जब चुप्पी तोड़ने की बारी आती है, तो हम साँस रोक लेना अधिक उचित समझते हैं। दरअसल, हम चुप्पियों से भरे पुतले बन चुके हैं। हम स्पर्श करने में संकोच करते हैं, फिर भी जैसे-तैसे पहला क़दम बढ़ा लेते हैं, लेकिन जब बात चुप्पी के सिरों को खोलने की होती है, तो हम हज़ारों क़दम विपरीत दिशा में रखने में सहज होते हैं। शुरू में चुप्पियाँ आलाप के मानिंद लगती हैं, पर समय बीतने पर वो विलाप में परिवर्तित हो जाती...