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"दौड़ता शहर"

 




मैं पागलों की तरह सड़क के बीचों-बीच दौड़ रही हूँ जबकि दौड़ने से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा|

(अक्सर हम वे सपनें देखते हुए खुदको पाते हैं जिनका कोई सर-पैर नहीं होता|)


सहसा मेरी नींद टूटी|  

(शहर में नींद खुलती नहीं, टूटती है|)


मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-ब-तर पड़ा है| मैं बिना सोचे बालकनी की तरफ दौड़ी कि शायद बाहर की ठंडी हवा लगने से कुछ जान में जान आ सकें|  भीतर जो कुछ दौड़ रहा था वो अब बाहर भी दिखाई दे रहा है| दौड़ता, हांफता हुआ| 


कृत्रिम रोशनियों ने सारे शहर को उजाले में छुपा दिया है| सड़कों पर चंद गाड़ियाँ अभी भी दौड़ रही है| शहर का एक छोर कहीं अनंत में लटका हुआ है और दूसरा छोर कहीं शून्य में पड़ा हुआ है| मैं शून्य से अनंत तक पलक झपकते दौड़ गयी मानो मेरी कोई पसंद की चीज़ शून्य से अनंत में जा के छुप गयी हो| शहर हमेशा से मेरे गले में फँसी हड्डी के समान रहा है| इस हड्डी की बनावट में सपने और ज़रूरतों के खनिजों का उपयोग हुआ है| मुझे शहर से कभी घृणा नहीं रहीं और न ही कभी प्रेम रहा|

(जीवन में कभी कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिसमें न घृणा होती है न प्रेम|)


जब पहली बार पगडंडियों से होकर शहर की सड़कों पर चलना हुआ तो पहली बार दुनिया को दौड़ते हुए देखा| रेंगते हुए जीवन से दौड़ती हुई दुनिया में प्रवेश करना किसी जादू से कम नहीं था| गाँव में रहते हुए शहर की जो कल्पना होती है वो शहर के यथार्थ से एकदम भिन्न होती है|


अब और सोचने में दिमाग़ की नसें सुन्न पड़ जाएँगी| गला भी सूख रहा है| गले को चाय की चुस्की लेते हुए तर करने में कोई बुराई नहीं दिखती| हांफता हुआ शरीर अब धीमे-धीमे शांत हो रहा है| खिड़की से शर्माती हुई सूरज की किरणें अब मकान के भीतर प्रवेश कर रहीं हैं हालाँकि घर की स्मृतियाँ अब भी भीतर घर बनाये बैठी हुई हैं|

(कितना कुछ है जिसे हम भीतर से बाहर फेंकना चाहते है पर इसका नियंत्रण हमारे पास नहीं होता है|)


इस मकान के किसी कोने में घर लौटने की उम्मीद मूर्छित पड़ी रहती है| शहर का रंग अब मुझपे चढ़ने लगा है लेकिन अभी भी मन शहर का रंग छोड़ देता है| शहर ने फिर तेज़ी पकड़ ली है - मुझे कल से और तेज़ आज दौड़ना होगा| 


~आमना 

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