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"शहरी पिशाच"

 


शहर में घुसते ही एक अलग सा दबाव महसूस होता है मानो अगर नहीं दौड़े तो मारे जायेंगे और मरना किसी को नहीं पसंद है| हालाँकि बहुत सारे लोग मरे हुए हैं पर वे जीवित होने का ढोंग करते-करते लगातार मर रहे हैं| 

(हर दिन बड़े शहर में छोटी-छोटी मौतें ख़ैरात में मिलती है|)


फिर क्यों मौत का तांडव देखना है?
क्यों शहर जाना है?
शहर एक चुम्बक के भांति है जो जीवनकाल में एक बार अपनी ओर इस तरह आकर्षित करता है| उसके चुम्बकीय क्षेत्र से बाहर निकलना असंभव है और मनुष्य को असंभव काम करने में उत्साह मिलता है|


लोग शहर को उम्मीद की तरह देखते है और मैं शहर को क़ब्रिस्तान की तरह| कितना द्वन्द से भरा है न मेरा नज़रिया; पर क्या करूँ?- शहर का ख़ालीपन, मौत के बाद की शान्ति से भी गहरा है| मुझे हर गहरी चीज़ में अपनी परछाई नज़र आती है| मुझे शहर का रंग नहीं चढ़ा हालाँकि गांव का रंग उतर चुका है| शहर ने गांव को मौत के घाट उतार दिया है| मैं अपनी कंक्रीट क़ब्र से उठकर जानदार सपनों के पीछे भागती हूँ और मेरे जैसे सैकड़ों निर्जीव लोगों को उन कंक्रीट सड़कों पर भागते हुए पाती हूँ जहाँ मैं कभी पगडंडियां पार कर पहुंची थी|

(कितनी सजीव यात्रा होती है निर्जीव लोगों की, अतिशयोक्तिसे ओत-प्रोत|)


गाड़ियों में जलते ईंधन का प्रमाण देते हुए धुएं जिससे दम नहीं घुटता पर कुढ़ती है गांव में जन्मी स्मृतियाँ|
ट्रैफिक लाइट के लाल होते ही मौत टल जाती है| पर निर्जीव लोगों की आँखें प्रतीक्षा करते हुए एकटक देखती है लाल बत्ती का हरा होना|

(ठहराव में भी हम भागती दुनिया को निहारते हैं|) 


शाम होने पर शहर में लोग घर नहीं लौटते, शहरी पाँव मकानों की ओर दौड़ लगाने लगते है| मैंने अपने पाँव पर क़ाबू पहले खोया फिर अपने पर| हाँ, शहर की हवा में नशा ज़्यादा है| नहीं....नहीं....सपनों का नशा|

मैंने तात्कालिक मौतों के बारे में ख़ूब सुना है, क़िस्सों में, कहानियों में और जीवन में| लेकिन जिस तरह छत से बारिश का पानी रिसता हुआ नीचे आता है तो इस तरह की मौत, मैंने शहर में रहते हुए जानी है|

(जिन चीज़ों के बारे में हम नहीं जानते, उसे हम सिरे से खारिज करते रहते है|)


गांव लौटने के विचारों को बार-बार खारिज करती रहती हूँ क्यूंकि मेरी अपनी जीवन की सीमित समझ में मौत एक अंतिम सच है| गांव में जीवन था पर वह काल्पनिक झूठ था| शहर में मौत है और यह वास्तविक सच है | यह गांव और शहर के बीच के झूले को झूलते हुए आदमी निढाल हो जाता है तो कभी गांव की स्मृतियों की उलटी कर देता है और कभी शहर के हिस्से में आये उदास आसमान में, गांव की चंचल स्मृतियाँ उड़ान भर लेती हैं|

परदे को चीरते हुए सूरज की किरण मुँह पर पड़ती है| समय ने उबासी लेना बंद कर दिया है| पाँव और गाड़ियों की आवाज़ तेज़ हो गयी है और ये संकेत काफी है मुझे मेरी क़ब्र से बाहर निकालने के लिए|


~आमना 

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