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Showing posts from October, 2024

"कीलों का अतीत उसपे टंगा वर्तमान"

  सूरज डूबने के साथ, थकान का चिन्ह लेकर, मकान की तरफ़ लौटते ही दीवार में जड़ी कील पर चाभी के साथ, दिनभर का थका मुखौटा टांगना उचित लगता है। मकान में बिना किसी मुखौटे के घूमना झूठा है क्यूंकि मकान की नींव ही मुखौटों के ईंटों से रखी गयी हैं| गाँव के घर की दीवारों पर कई कीलें जड़ी हुई थी| पिता किसी पर थैला टांगते तो किसी पर चाभी या कपड़े लेकिन अम्मा को केवल कैलेंडर टांगना अच्छा लगता था| तारीख़ का हिसाब मिलता रहता और महीने का हिसाब-किताब भी लिख लेती| हमें तो केवल लाल रंग से लिखी तारीख़ ख़ूब भाती थी| छुट्टियों का इंतज़ार बड़ी धूम-धाम से करते थे| शहर की ओर जब शरीर बढ़ाया और कंधे पर लदे सामान में सपने और आत्मा को ज़बरदस्ती लादा तब लगा कि घर छोड़ना वास्तविकता में मज़बूत लोगों की निशानी है| हालाँकि मैं तो कमज़ोर थी लेकिन जब घर छूटा, काया और आत्मा दोनों चट्टान की तरह मज़बूत हो गयी| (शहर के शुरुआती दौर में, शहर आपकी रीढ़ की हड्डी पर वार करता है| आपको इतना मज़बूत होना पड़ता है कि उसका वार आपको वार न लगकर, पीठ थपथपाना लगे| ऐसे वारों में टिक कर खड़े रह जाने के बाद शहर वास्तव में, पीठ थप...

"धुनों में पिरोयी कहानियां"

  कोने में बैठी हुई कुर्सी ख़ाली पड़ी है| मेरा कमरे में होना वह अपनी आँखों में क़ैद कर रही है| कमरे से निकलने के बाद, मेरे एकांत से वह क्या संवाद करती होगी; यह मैं सोच रही हूँ | हम दोनों अपनी जगह पर चुपचाप बैठे हुए, दौड़ते हुए विचारों के पीछे भागते हैं| वह मेरे जीवन के बारे में कहानियां गढ़ती है और मैं अपने जीवन की कहानियों को टटोलती हूँ| जब अपनी कहानियों को टटोलते हुए ऊबने लगती हूँ तो खिड़की से बाहर ताकना शुरू कर देती हूँ | बाहर आते-जाते लोगों के बारे में मनगढ़ंत कहानियां गढ़ने लगती हूँ | हम दोनों के द्वारा गढ़ी गयी कहानियों की भनक कमरे को भी नहीं लगती है| अपनी-अपनी कहानियों का संरक्षण हम ख़ुद करते है, चुप रहकर, अनजान बने रहकर| हम एक दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप करने में कतराते है| हमें लगता है कि अगर हमारी कहानियों ने चौखट लाँघी तो वे हमारा पर्दाफ़ाश कर देंगी| हमें पाश-पाश कर देंगी| हमें कहानियों का गट्ठर ढोने में कभी थकान नहीं हुई| हमें बचाये रखने में कहानियों का हाथ है लेकिन हर दिन हमें थोड़ा-थोड़ा तबाह भी कहानियां ही करती है|    एक कहानी से प्रस्थान करते हुए, दूस...

"बासी लेखन"

  आजकल एक नए से डर के घेरे में रहना शुरू हुआ है| कई डर आये और कुछ दिन गुज़ार कर चले गए| शायद यह भी चला जाये कुछ दिन बाद, पर जितने दिनों से यह साथ में है जीवन दूभर है| पहली बार किसी डर ने लेखन के आसपास भटकने की हिम्मत की है| मुझे डर लगने लगा है कि कहीं मेरे लेखन से बास न आने लगे| अभी तक मेरा लेखन निडर रहा है| हाँ, पर मैं डरी-सहमी ज़रूर रहीं हूँ|  मैंने अपने लेखन के इर्द-गिर्द ख़ुद को भी नहीं जाने दिया पर यह प्रेत नुमा डर मेरे लेखन के पास मंडरा रहा है| मुझे अँधेरे से डर लगता रहा लेकिन लिखते समय मुझे अँधेरा चाहिए होता है किन्तु अब लगता है कि मेरे पीछे कोई बैठा हुआ है जो निरंतर मेरी उँगलियों को कीपैड पर पड़ते देख रहा है| मैं निरंतर काँप रही हूँ कि वह मेरे ताज़े से लेखन को कहीं बासी न कर दे| मुझे हर बासी होती हुई चीज़ों से खीज महसूस होती है जैसे बिस्तर के किनारे पड़ी हुई किताबें, संदूक में पड़े एल्बम, मकानों में पड़ी घर की स्मृतियाँ, पड़ोसी के अमरूद के पेड़ से गिरे अमरूद, दालान में पड़ा अख़बारों का अम्बार, गमलों के पेंदे पर जमी काई और अब बासी होती हुई चीज़ों का और विस्तार...

"किवाड़ पर उभरे गड्ढे"

  जब छुट्टियों में घर जाना होता तो अम्मा और किवाड़ दोनों इंतज़ार करते हुए मिलते थे| अम्मा की चमकती आँखें दिखती पर नीचे आये गड्ढे हर बार और गहरे हो जाते| पिछले कितने बरसों से वह घर में रहकर भी कभी पिता की राह तकती थी तो कभी हमारी| अम्मा ने सुख में भी इंतज़ार किया|  अम्मा की आख़िरी स्मृति किवाड़ के सहारे टिक कर खड़े हुए है| उनका आधा शरीर घर की ओर है और आधा शरीर बाहर जैसे वह आधी जीवित और आधी मृत हों| अम्मा अब जा चुकीं हैं, बहुत दूर; लेकिन हमें केवल घर की दूरी मालूम रही| अम्मा की मौत पर घर भी क़ब्रिस्तान तक गया था हालाँकि किवाड़ अपनी जगह जमा रहा और बिलखता रहा| कितना सब कुछ अम्मा अपने साथ ले गयीं और जो छूट गया, वो अपने पैरों पर चल कर ख़ुद चला गया| साल रेंग रहे हैं, महीने चल रहे हैं और घड़ी की सुई दौड़ रही है| घर अब पास लगने लगा है लेकिन वहाँ जाने की वजह, बहुत साल पहले; बहुत दूर चली गयी| अम्मा का पता घर था पर घर अम्मा से था| अम्मा के बाद हम घर पर बहुत लम्बा रुके, जहाँ रुके वह मकान हो चुका था| हमने सिंधु घाटी सभ्यता को खंडहर होते हुए नहीं देखा केवल उसके बारे ...

"शोषित पाँव"

  एक वक़्त बाद बहुत ज़रूरी हो जाता है लौटना| जहाँ से पाँव ने भागना शुरू किया था शायद वहाँ लौटना असंभव होता है इसीलिए उस तरफ़ लौटने का विचार भी नहीं आता| लेकिन कभी-कभी कहीं बस लौट जाने को मन उतावला हो जाता है, जहाँ पाँव पर आये छालों को देखा जा सके, उन्हें खुले में छोड़ा जा सके और हाँफते हुए शरीर को फिर से हाँफने के लिए तैयार किया जा सके| बचपन में घर के बड़ों ने माँ और पिता को बतला दिया था कि इसके पाँव किसी एक जगह नहीं टिकेंगे| वाक़ई, पाँव हवा में ही रहें| कभी पाँव किसी शहर में लगभग टिकने को होते तो दूसरे शहर से बुलावा आ जाता| पलायन से भरपूर जीवन दूर से देखने में सुन्दर लगता है हालाँकि पास से देखने में एकदम फीका होता है| एक शहर की सुगंध लिए दूसरे शहर भागती नाक, अपनी पसंदीदा गंध भूल जाती है|  किसी एक शहर को अपना शहर बोलने में ज़बान लड़खड़ाने लगती है| किसी एक शहर में इतना रहना नहीं हुआ कि उस शहर के आग़ोश में चैन से नींद आयी हो| मुझे हमेशा लगता रहा कि भागते रहना, हमें जीवन की मुश्किलों से निज़ात दिलाता है क्यूँकि भागते हुए इंसान का ध्यान सिर्फ़ भागने पर रहता है| (ख़ानाबदोश जीव...