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"किवाड़ पर उभरे गड्ढे"

 


जब छुट्टियों में घर जाना होता तो अम्मा और किवाड़ दोनों इंतज़ार करते हुए मिलते थे| अम्मा की चमकती आँखें दिखती पर नीचे आये गड्ढे हर बार और गहरे हो जाते| पिछले कितने बरसों से वह घर में रहकर भी कभी पिता की राह तकती थी तो कभी हमारी| अम्मा ने सुख में भी इंतज़ार किया| 


अम्मा की आख़िरी स्मृति किवाड़ के सहारे टिक कर खड़े हुए है| उनका आधा शरीर घर की ओर है और आधा शरीर बाहर जैसे वह आधी जीवित और आधी मृत हों| अम्मा अब जा चुकीं हैं, बहुत दूर; लेकिन हमें केवल घर की दूरी मालूम रही|


अम्मा की मौत पर घर भी क़ब्रिस्तान तक गया था हालाँकि किवाड़ अपनी जगह जमा रहा और बिलखता रहा| कितना सब कुछ अम्मा अपने साथ ले गयीं और जो छूट गया, वो अपने पैरों पर चल कर ख़ुद चला गया|


साल रेंग रहे हैं, महीने चल रहे हैं और घड़ी की सुई दौड़ रही है| घर अब पास लगने लगा है लेकिन वहाँ जाने की वजह, बहुत साल पहले; बहुत दूर चली गयी| अम्मा का पता घर था पर घर अम्मा से था| अम्मा के बाद हम घर पर बहुत लम्बा रुके, जहाँ रुके वह मकान हो चुका था| हमने सिंधु घाटी सभ्यता को खंडहर होते हुए नहीं देखा केवल उसके बारे में सुना था पर हमने घर को मकान के खंडहर में बदलते हुए ज़रूर देखा अंततः महसूस किया|


अम्मा के आँखों के नीचे के गड्ढे अब किवाड़ पर उभर आये लेकिन वे फीके पड़ चुकें हैं| किवाड़ के उस पार न मृत्यु है न इस पार जीवन| किवाड़ की ओर चलते हुए इंतज़ार है और किवाड़ पार कर, घोर सन्नाटा|


~आमना 



Comments

  1. जीती रहो । खुश रहो । धीरे धीरे सब ठीक हो जाता है यह दुनिया का सबसे बड़ा झूट होगा । में १३ का था माँ चली गई । कई दशक जा चुके आज भी याद आती है । “ जाने कहाँ चले जाते है दुनिया से जाने वाले “ । दिल्ली हो तो निज्जामुदिन दरगाह जाओ शायद सुकून मिले । ज़फ़र यही आये थे।

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