आजकल एक नए से डर के घेरे में रहना शुरू हुआ है| कई डर आये और कुछ दिन गुज़ार कर चले गए| शायद यह भी चला जाये कुछ दिन बाद, पर जितने दिनों से यह साथ में है जीवन दूभर है| पहली बार किसी डर ने लेखन के आसपास भटकने की हिम्मत की है| मुझे डर लगने लगा है कि कहीं मेरे लेखन से बास न आने लगे| अभी तक मेरा लेखन निडर रहा है| हाँ, पर मैं डरी-सहमी ज़रूर रहीं हूँ|
मैंने अपने लेखन के इर्द-गिर्द ख़ुद को भी नहीं जाने दिया पर यह प्रेत नुमा डर मेरे लेखन के पास मंडरा रहा है| मुझे अँधेरे से डर लगता रहा लेकिन लिखते समय मुझे अँधेरा चाहिए होता है किन्तु अब लगता है कि मेरे पीछे कोई बैठा हुआ है जो निरंतर मेरी उँगलियों को कीपैड पर पड़ते देख रहा है| मैं निरंतर काँप रही हूँ कि वह मेरे ताज़े से लेखन को कहीं बासी न कर दे|
मुझे हर बासी होती हुई चीज़ों से खीज महसूस होती है जैसे बिस्तर के किनारे पड़ी हुई किताबें, संदूक में पड़े एल्बम, मकानों में पड़ी घर की स्मृतियाँ, पड़ोसी के अमरूद के पेड़ से गिरे अमरूद, दालान में पड़ा अख़बारों का अम्बार, गमलों के पेंदे पर जमी काई और अब बासी होती हुई चीज़ों का और विस्तार हो रहा है| मुझे मेरे पुराने लेखन का धीमे-धीमे बासी होना खलने लगा है| पुराना बासी लेखन अब ताज़े लेखन पर अपना वर्चस्व जमाने की घोषणा कर चुका है|
पक्षियों के घर लौटने के साथ आँखों के नीचे उभरे गड्ढों में धसा प्रेत अपनी आँख खोलना शुरू कर देता है| खिड़की से चाँद की रोशनी के प्रवेश पर यह प्रेत मेरे पीछे बैठने के ब-जाए, मेरे बग़ल में बैठता है| दिन-ब-दिन यह अपनी जगह बदल रहा है और मेरे क़रीब आ रहा है- मेरे लेखन के बेहद क़रीब|
इस डर के साथ लिखना मुश्किल हो रहा है इसलिए कुछ समय के लिए मैंने अपनी उँगलियों को कीपैड से हटा कर, किताबों के पन्ने पलटने में लगा दिया हैं| नाना-प्रकार की किताबें, उनकी नाना-प्रकार की ताज़ी दुनिया में यह प्रेत अपना बासी होना देख रहा है और धीमे-धीमे आँखों के नीचे उभरे गड्ढों में धस रहा है|
~आमना
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ReplyDeleteBahut Shukriya 😊
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