Skip to main content

"भयानक सपनें"


सहसा नींद टूटी|


(नींद खुलने वाले दिन कहीं बहुत पीछे छूट चुकें हैं|)


नींद टूटने का कारण आँखें बंद में देखा गया, एक भयानक सपना था| काला पानी से प्रेरित| एक छोटा कमरा जिसमें रोशनी के आने के लिए एक छोटा सा छेद था पर दूर-दूर तक फैला हुआ था घनघोर सन्नाटा| कमरे के बीचों-बीच खड़े होकर, दीवारों को छुआ जा सकता था| मेरी साँसों की गति अब प्रकाश की गति को मात दे रही थी| अब मैं आँखें खोलकर इस भयानक सपने की परिकल्पना करने में जुट गयी कि तभी मैंने पाया- मेरा बदन पसीने से तर-ब-तर हुआ है| खिड़की से बाहर झाँकने पर बहुत दूर दिखने वाला अनंत, कोहरे की वजह से बहुत पास नज़र आ रहा है| आज दिसंबर की एक तारीख़ है|


(कभी-कभी हम दिन, महीने और साल से अनजान हो जाते हैं फिर अचानक से कहीं तेज़ हवा का झोंका शरीर को चीरता हुआ निकलता है।)


दिसंबर आते ही एक अजीब ओ ग़रीब सी बेचैनी चारों-ओर पसरने लगती है| जिससे मेरा बहुत पुराना रिश्ता रहा हो फिर भी हर बार नयी सी तीव्रता के साथ आती है| अपनी सर्द ठंड के चलते दिसंबर मेरे इस तरह के सपने को जमाने में विफल ही रहा है| साल भर की घटनायें दिसंबर के आते ही एक बार फिर से आँखों के सामने से गुज़रने लगती हैं जैसे आने वाली जनवरी को आगाह कर रही हो| जनवरी से दिसंबर की दूरी मानो भविष्य की यात्रा हो और दिसंबर से जनवरी की दूरी अतीत|


भयानक सपनों में किसी तरह का कोई भूत, पिशाच या खूनखराबा नहीं होता है फिर भी वे इतने भयानक होते है कि मेरी कई दिनों की नींद ग़ायब हो जाती है| बहुत सालों पहले जब भी मुझे किसी बात से डर लगता था तो मैं सो जाती थी पर अब किसी चीज़ से डर के चलते में खुदको उस डर के हवाले कर देती हूँ| अब किसी डर से भागना कायरता है और बहादुर होने का सबक़ हमें हमेशा ही मिला है।  


मैं इस भयानक सपने से कुछ निष्कर्ष निकालूँ कि उससे पहले कोई और भयानक सपना दस्तक देने लग जाता है| सोच रही हूँ कि अपने थरथराते शरीर से निकलते अलाव के पास कुछ देर बैठ कर, आने वाले भयानक सपने की दस्तक का इंतज़ार कर लेती हूँ| 


~आमना  

 



   

Comments

  1. कितना अच्छा लिखते हो ! निज सा महसूस होता हैं !; 🙂

    ReplyDelete
    Replies
    1. Shukriya....hum sab ka nij ek sa hi hai😅

      Delete
  2. खिड़की से बाहर झाँकने पर बहुत दूर दिखने वाला अनंत, कोहरे की वजह से बहुत पास नज़र आ रहा है| khoobsurat likha hai aapne

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...

"मृत घर और आवारा मकान"

जिस तरह से मृत्यु नहीं टाली जा सकती उस तरह से एक उम्र के बाद घर को छोड़ना नहीं टाला जा सकता है| और तब हमें केवल घर का पता याद रह जाता है| जीवन में हर तरह की यात्रा घर से प्रारम्भ होती है लेकिन दुर्भाग्य से किसी भी यात्रा का अंत घर पर नहीं होता है| जीवन गतिशील होता है और इसके विपरीत होता है ठहराव से भरपूर घर| घर उद्गम है जिसके पास लौटना असंभव है| (असंभव में एक तरह का शांत दिलासा है|) लम्बे समय तक घर मेरी चारों दिशाओं में रहा फिर समय बीत गया, अब किसी दिशा में मुझे घर नहीं मिलता| घर अब मकान में तब्दील हो चुका है फिर भी मैं कभी-कभार उस मकान में घर की गंध सूँघने जाती हूँ लेकिन चौखट लाँघते ही मुझे स्थिर मकान में दौड़ता घर दिखने लगता है| वह दौड़ता घर मुझे कुचल कर मकान की चौखट लाँघ कर कहीं खो जाता है| मैं घर को पकड़ने नहीं दौड़ती क्यूंकि अब दौड़ने का साहस मेरे भीतर नहीं बचा है|  आँगन में लगी तुलसी अब सूख चुकी है पर मेरी घर की खोज अभी भी वैसी ही है जैसे तुलसी के अवशेष की अपनी जगह| पिता की चारपाई के पाए अब कमज़ोर हो चुके है जैसे वह अपने आख़िरी दिनों में हो गए थे| माँ की अलमारी में दीमक लग चु...