जीवंत जीवन जीने में हम भूल जाते हैं मृत्यु को। मृत्यु का जैसे कोई अस्तित्व ही न हो। हर क्षण मृत्यु का डर मंडराना चाहिए लेकिन हर क्षण सांस लेने के घमंड ने हमें अँधा कर दिया। भुला दिया सबसे प्रामाणिक सत्य को, मृत्यु को। क्या है जीवन, को ढूंढते हुए; जीवन में ही खो गए।
श्रीकांत वर्मा जी की कविता "मणिकर्णिका का डोम" याद आ रही हैं। मणिकर्णिका घाट की स्मृति बार-बार दस्तक दे रही है। जीवन और मृत्यु का उत्सव मनाने वाला "काशी" याद आ रहा है। "मसान" फिल्म के दीपक का "बनारस" भी याद आ रहा है। मृत्यु के साथ कितना कुछ याद आ रहा। जीवन का अमृत गिरगिट लग रहा है, रंग बदल कर जीवन का विष हो रहा है।बिस्तर पर पड़ा शरीर, दीवार के सहारे रिसती हुई मृत्यु को देख रहा है। मन, जीवन के रचे षडयंत्र पर ठहाके लगा रहा है। आसपास के लोग तरस खा रहे है। उनकी आँखों में मृत्यु के भय से उठती तरंगे अठखेलियाँ कर रही है।
जीवन के सारे काश अब रीढ़ की हड्डी में कंपन पैदा कर रहे हैं। निकट आती मृत्यु के प्रकोप से सारे दुःख अपने-अपने घरों में जा छुपे है। अपने लोग हाथ पकड़कर, सिसकियों के साथ मायावी जीवन का लालच दे रहे है। पराये लोग मृत्यु का तांडव देखने आ रहे हैं। मैं इन सब को अपने अर्ध मृत शरीर से अभिनय करते हुए देख रही हूँ ...........अद्भुत कलाकार।
पर्दा उठता है और शेक्सपियर...
All the world’s a stage,
And all the men and women merely players;
They have their exits and their entrances;
आत्मनिर्भर शरीर में इतनी ताक़त नहीं कि तालियाँ बजा सके लेकिन चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहने का अभिनय देखते हुए आते-जाते लोग तालियाँ बजा रहे है|
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