विस्थापन ने हमारे चीथड़े उड़ा दिए। शहरों में हम उन्हीं चीथड़ों को बीन रहे हैं। विस्थापित लोगों का गला सूखने लगता हैं जब उनसे कोई उनकी पृष्ठभूमि के बारे में पूछता हैं। विस्थापन से पहले के कालखंड की स्मृतियाँ उन्हें जीवित रखती हैं शहरों में। यह यूँ कह लीजिये कि शहर के पास इतना समय भी नहीं कि एक व्यक्ति अवगत हो पाए अपने जीवित और मृत होने से।
विस्थापित लोगों के चाल-ढाल में विस्थापन दिखाई पड़ता है। एक व्यक्ति अपना पूरा जीवन विस्थापन का बोझ ढोते निकाल देता है। विस्थापन का घाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी भरता है। ऐसा ही कुछ हुआ होगा 1947 के साल भी। बटवारे में मिला ज़मीन का टुकड़ा , लोगों को उनकी मिट्टी नहीं दे पाया होगा। ज़मीन की लड़ाई में, ज़मीन लहूलुहान होती है पर ज़मीर की लड़ाई में पूरी मानवता।
शहर में दौड़ता व्यक्ति दूसरे दौड़ते व्यक्ति से छुपकर निकलने की जद्दोजहद इसलिए भी करता है कि कहीं दूसरे व्यक्ति का विस्थापन उसके विस्थापन से, विस्थापन की प्रतिस्पर्धा में आगे न हो जाये। कितना दौड़ना पड़ता है बच निकलने के लिए। विस्थापन सार्वजनिक है लेकिन इसका शोक व्यक्तिगत है।
जब पहली बार विस्थापन का विचार दिमाग़ में आता है तब विस्थापन मरुस्थल की तरह सामने नहीं आता, एक सुन्दर से बग़ीचे की झलक के साथ आता है। फिर शहर पहुँच जाते है और विस्थापित हो चुके की स्वीकृति हर दिन थोड़ा-थोड़ा घायल करना शुरू करती है। जब-जब गांव जाना होता है तब-तब हम विस्थापन भूल जाते हैं लेकिन फिर शहर लौटते हुए हमें अपने शरीर पर विस्थापन की खरोंचे उभरी और गहरी नज़र आने लगती हैं|
~आमना
Beautifully written A!
ReplyDeleteपर हर बार विस्थापन का विचार शायद सुंदर बगीचे की झलक ना लाता हो।
और हां, शोक लगभग हमेशा व्यक्तिगत ही होता है।