मुँह से निकलती ध्वनियाँ दीवारों से टकरा कर मेरे सामने आकर बैठ रही हैं। संवाद एकतरफ़ा हो रहा है। खिड़की से बाहर कोई दूसरी दुनिया है और खिड़की से अंदर दीवारों से घिरी कोई तीसरी दुनिया है। पहली दुनिया, आश्चर्य से भरी दुनिया, जो मैं ख़ुद हूँ। कंठ से आज़ाद होने से पहली ही, विचार लड़खड़ा रहें हैं। मैं दूसरी तरफ़ खड़े होकर इनको प्रोत्साहित कर रही हूँ। मैं तीनों दुनिया के बीच झूल रही हूँ। कोई एक दुनिया पूरी तरह से मुझे, अपना नहीं होने दे रही । गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम नहीं हो पा रहा हैं। मैं वह त्रिवेणी हूँ जिसमें कोई संगम नहीं है।
वे सारे संवाद मुझे डरा देते हैं जिनमें मैं सच में उपस्थित होती हूँ। हर बार मैं मौन का सहारा लेकर बच निकलती हूँ लेकिन अब मौन मुझसे संवाद करना चाहता है; अब बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। मेरे कृत्रिम होने का राज़ तीनों दुनिया में खुल चुका है। मेरी उलझी दुनिया, और उलझ चुकी है। आँखें संगम ढूंढ रही हैं और शब्दकोश में शब्दों का सूखा पड़ गया है।
तीन तरफ़ से मुझे तीनों दुनिया ने घेर लिया है और चौथी ओर से मौन ने। मैं चारों ओर से घिर चुकी हूँ। संवाद का सिलसिला शुरू होने को है।मैं बीचों-बीच बैठ गयी हूँ। शरीर में फंसी फांसे संवाद के चलते निकल रही हैं। मेरा दर्द का आदी शरीर, दर्द से लगातार कराह रहा है। मुझे अपना संगम दिखना शुरू हो चुका है।
~आमना
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