Skip to main content

"खिड़की से बहता अरण्य"

 


पेचीदा सड़कों से होते हुए, ज़मीन से नीचे जाते ज़ीनों से होकर मैं एक बहुत पुराने पुस्तकालय में पहुंची| ईंट के रंग की दीवारें और छत से कई सारे लम्बे से पंखे जिन्होंने आपने आप को पूरी तरह से गुरुत्वाकर्षण को सौंप दिया हैं| किताबों की दशा देख के अनुमान लगाया जा सकता हैं कि इस आधुनिक काल से पहले जन्मा होगा यह पुस्तकालय| मेरे पांव धीमे-धीमे आगे की ओर जाने लगे और सैकड़ों किताबों को पीछे छोड़ते हुए मानो किसी अदृश्य चमक की तलाश में हों| कुछ देर बाद मैं पुस्तकालय के अंतिम भाग में पहुंच जाती हूँ| रोशनी टिमटिमा रही है| दूर से जो दो व्यक्ति आपस में बात करते हुए दिख रहे थे, अब धीमे-धीमे उनके धुंधले चेहरे साफ़ नज़र आ रहे हैं| मैं जहाँ खड़ी थी वही जमी खड़ी रही....... वे दोनों... कोई और नहीं......निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल हैं|       


कुछ देर बाद, मैंने अपने आप को सँभालते हुए चारों ओर देखने की पुर-ज़ोर कोशिश की लेकिन मेरी आँखें एकटक दोनों लेखकों को देखती रही और कान में केवल पन्ने पलटने की आवाज़ आती रही| 


मैंने सालों पहले अपने आप को ज़मीन में धंसते हुए पाया तो दो किताबें हाथ लगी- "अंतिम अरण्य" और "दिवार में एक खिड़की रहती थी|" फिर कुछ महीनों तक इन किताबों में रहते हुए मुझे एक दिन अपनी खिड़की मिल गयी जिसे फाँद कर मैंने एक नदी में अपनी अस्थियां बहा दी, अपने पुनर्जन्म के लिए|   


पन्ने पलटने की आवाज़ अब शून्य हो चुकी है| तेज़ हवा से खिड़की बंद हुई तो आँख खुल गयी| मैं पुस्तकालय में नहीं, बिस्तर पर हूँ; रात के दो बज रहे है| बाहर तूफ़ान की आशंका है और मेरी भीतर एक शांत सा तूफ़ान अब कोलाहल करने लगा है लेकिन मेरी आँखें एकटक बंद हुई खिड़की से किसी को तलाश रही हैं| 


~आमना

Comments

Popular posts from this blog

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"मृत घर और आवारा मकान"

जिस तरह से मृत्यु नहीं टाली जा सकती उस तरह से एक उम्र के बाद घर को छोड़ना नहीं टाला जा सकता है| और तब हमें केवल घर का पता याद रह जाता है| जीवन में हर तरह की यात्रा घर से प्रारम्भ होती है लेकिन दुर्भाग्य से किसी भी यात्रा का अंत घर पर नहीं होता है| जीवन गतिशील होता है और इसके विपरीत होता है ठहराव से भरपूर घर| घर उद्गम है जिसके पास लौटना असंभव है| (असंभव में एक तरह का शांत दिलासा है|) लम्बे समय तक घर मेरी चारों दिशाओं में रहा फिर समय बीत गया, अब किसी दिशा में मुझे घर नहीं मिलता| घर अब मकान में तब्दील हो चुका है फिर भी मैं कभी-कभार उस मकान में घर की गंध सूँघने जाती हूँ लेकिन चौखट लाँघते ही मुझे स्थिर मकान में दौड़ता घर दिखने लगता है| वह दौड़ता घर मुझे कुचल कर मकान की चौखट लाँघ कर कहीं खो जाता है| मैं घर को पकड़ने नहीं दौड़ती क्यूंकि अब दौड़ने का साहस मेरे भीतर नहीं बचा है|  आँगन में लगी तुलसी अब सूख चुकी है पर मेरी घर की खोज अभी भी वैसी ही है जैसे तुलसी के अवशेष की अपनी जगह| पिता की चारपाई के पाए अब कमज़ोर हो चुके है जैसे वह अपने आख़िरी दिनों में हो गए थे| माँ की अलमारी में दीमक लग चु...

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...