अम्मा रसोई की खिड़की से कहीं दूर दूसरी खिड़की पर आँखें टिकाए, निढाल काया में खड़ी हुई हैं। मेरी आँखें अक्सर उन्हें इस स्थिति में पकड़ती हैं। पूछने पर वही घिसा-पिटा जवाब मिलता है- "कहाँ, यहीं तो देख रही हूँ।" अम्मा को झूठ बोलना नहीं आता है, पर दुःख छुपाने में महारत हासिल है। अम्मा से मिला जीवन इन दिनों, अम्मा की रहस्यमय दुःखी दुनिया में घुसने के अवसर ढूँढ रहा है। क्या है वह और क्यों है, जो इतने सालों से अम्मा को शापित किए हुए है? अम्मा ऐसी तो नहीं थीं। वह चहकती, खिलखिलाती अम्मा हुआ करती थीं। दुःख आने पर दुःख पर हल्ला बोल देती थीं। वह कौन सा दुःख है जिसने अम्मा को पकड़ लिया है? हर गुज़रते साल के साथ वह दुःख उन्हें खोखला करता जा रहा है। अम्मा गौरैया होती जा रही हैं। मैं अपने जीवन से अम्मा को विलुप्त नहीं होने दे सकती।
आज सोचा कि मौक़ा मिलते ही सीधे तीर चला दूँगी, और चला दिया तीर। पूछ बैठी- "क्या कोई दुःख है?"
अम्मा- "दुःख और मुझे!"
(मुस्कुरा दीं)
मुझे बस उनकी फीकी मुस्कान ही नज़र आई।
अम्मा एक खुली किताब हुआ करती थीं, तब मुझे पढ़ना-लिखना नहीं आता था। उस दुःख के शाप के चलते वह बंद किताब हो गईं, लेकिन मैंने पढ़ना-लिखना सीख लिया। कभी-कभी मेरे भीतर बैठा शैतान, अम्मा को झकझोर देना चाहता है, ताकि उन्हें वापस लाया जा सके इस बहते जीवन में। वह पत्थर जिसने उन्हें जकड़ा हुआ है, उसे जीवन के बहाव से चूर-चूर करने का मन करता है। पर फिर अम्मा को निहारते हुए लगता है कि यह लोहे जैसी औरत को अपने ऊपर लगते ज़ंग पर कभी आश्चर्य नहीं होता है।
अम्मा कभी खाली नहीं मिलतीं। शायद खाली बैठने पर दुःख और हावी होने लगता है। उन्होंने उलझना बंद कर दिया है और चहकना भी। मुझे अम्मा को अब याद दिलाना पड़ता है, "अम्मा....अम्मा!" वह कभी-कभी मुस्कुराती हैं, शायद हमारे लिए। अपनी आँखों से वह चुपके से कहीं खो जाती हैं। दुःख किसी भी पहर उनके पास आ खड़ा होता है।
मुझे हर रोज़ महसूस हो रहा है कि गौरैया के धीमे-धीमे पंख कट रहे हैं। उसका ठिकाना अब आकाश से पाताल में बदल रहा है। अम्मा को साड़ियाँ पहनना बहुत पसंद था। अम्मा के पास इतनी साड़ियाँ हैं कि वह दुकान खोल सकती हैं। अब वह साड़ी नहीं पहनतीं। शायद उस दुःख ने उनकी साड़ियों पर भी नज़र लगा दी। अम्मा "इक़बाल बानो" की फैन हुआ करती थीं। ग़ज़लों में खोई रहती थीं। अब कहाँ खोई रहती हैं, कोई नहीं बता सकता। पर जिस अम्मा को मैं जानती हूँ, वह शायद किसी रोज़ काली साड़ी पहनकर शापित दुःख के सामने गुनगुनाने लगें, "हम देखेंगे.....लाज़िम है कि हम भी देखेंगे.....
“अम्मा को झूठ बोलना नहीं आता हैं पर दुःख छुपाने में महारत हासिल करी हैं।” इस पंक्ति में दुनिया की हर मां की सहनशीलता छुपी हुई है।
ReplyDeleteहमेशा की तरह बहुत सुंदर लिखा है आमना।
Bilkul......Bahut shukriya 😊
DeleteI..can totally relate to it...or bht sunder likha h..🌸❤
ReplyDelete"हम देखेंगे.....लाज़िम है कि हम भी देखेंगे....." ?
ReplyDeleteअच्छा लिखा हैं ! 🙂🍁
ReplyDeleteआज के दौर में हर कोई किसी न किसी दुख को छुपाए फिर रहा है, ऐसा कोई नही मिलता है जिसे वो अपना दुख बांट सके , अंदर ही अंदर सब अपने दुख के साथ समझौता कर लेते है। बस कोई नही मिलता जिसे कह सके अपने दिल की बात। इसी शापित गौरैया में अम्मा भी अपनी बेटी से कुछ साझा नही कर पा रही है। ये एकाकीपन हर जगह मौजूद है।
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