पहुँच चुकीं हूँ, जहाँ पहुँचना था। ऐसा कुछ नहीं है यहाँ ,जिसके लिए ख़ुद की खाल नोची जाये। अब चलो लौट चलते है वापस। अरे! अब वहाँ कुछ नहीं बचा; हरप्पा के जैसे अवशेष भी नहीं बचे। कितने युग बीत चुके हैं; चलना शुरू किये और पहुँचने के बीच। कुरूक्षेत्र की धरती अब काली हो चुकीं है। झूठ है कि हम घरों में रहते थे ,गाँव हुआ करते थे। दरबों से निकलकर हम दरबों में जाते लोग, आँगन को नहीं सोच पा रहे हैं। कौनसे युग की चौखट पर खड़ी हुई हूँ ?
कौनसे युग में मैं जन्मी थी, कौनसे युग में मैंने चलना शुरू किया था और कौनसे युग में मैं पहुँच गयी हूँ?
अम्मा नहीं नज़र आ रही ,पिता अख़बार पढ़ते नहीं दिख रहें। वे कहीं कलिंग के बाद तो नहीं मारे गए? सम्राट अशोक ने तो युद्ध त्याग दिया था? किस बहरूपिये ने योद्धा का भेष धारण कर लिया? राजतंत्र तो समाप्त हो गया था। प्रजातंत्र के ढोल ताशे पीटे जा रहें थे|जनता सड़कों पर मर रही थी; भूख से, हक़ मांगते हुए। समस्याएँ आम थी, मृत्यु गिनती की। अब मृत्यु आम है और गिनती का जीवन।
किसकी परिकल्पना का युग वास्तविक बन गया।
लोग और आगे पहुँचने के लिए एक-दूसरे को धकेल रहे हैं, कुचल रहे हैं। कोई कहीं लौटने की बात नहीं कर रहा और जो लौट रहे हैं, उनके हाथों निराशा लग रही हैं। सब अपना पता एक आदर्श युग बता रहे हैं। मैं इस आदर्श युग के मायाजाल से आकर्षित होकर हँस रही हूँ, अपने आप पर; अपने स्वार्थी होने पर।
~आमना
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