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"हमारा अपना शहर"



बीता साल काफ़ी किताबी रहा, पढ़ना ख़ूब हुआ और लिखना ठीक-ठाक रहा| बरगद जैसे लोगों की संगत मिली| एक कमरे में बंद रहते हुए भी, बहुत घूमना हुआ| इस साल ममता कालिया जी की 'जीते जी इलाहाबाद' से सिलसिला शुरू हो रहा है| शीर्षक पढ़ते हुए लगा कि अभी तक के मेरे लेखन में इलाहाबाद का ज़िक्र क्यों नहीं आया? लेकिन कुछ घटनायें संयोग के भरोसे बैठी होती हैं; वो जब घटित होती हैं तो जीवन थोड़ा और सहज व सुन्दर लगने लगता है|   


लगभग सारे ही शहर जिनका अस्तित्व होता है, वो देश के मानचित्र पर रेखांकित होते हैं| उनमें से दो-चार शहर का चित्रण हमारे ज़ेहन में रह जाता है| हमारे अस्तित्व का बड़ा हिस्सा वो शहर भी होते हैं| उन शहरों का बखान करते हुए, "हमारा' शब्द अपने-आप जुड़ जाता है उन शहरों के नामों के आगे| वो शहर हमारे चाल-ढाल में घुले होते हैं| कर्मभूमि एक पता मात्र होती है| जन्मभूमि वह गली होती है जहाँ बचपन गुज़रता है| हमारे संवादों में वो शहर भी अपना संवाद दर्ज़ कराते हैं| 


उन दो-चार शहरों में से एक शहर मेरे लिए, 'हमारा' इलाहाबाद रहा है| कहने को तो प्रयागराज हो गया है; राजनीति और रणनीति से इतर, लोगों की ज़बान पर अभी भी उनका इलाहाबाद ही है| खुसरो बाग़ की दीवारों में छुपा इलाहाबाद, संगम में भी डुबकी लगाता है| डालों में झूमते अमरूद, दुनिया भर के लोगों को इलाहाबाद का स्वाद चखाते हैं| सड़कों पर दीवाने और बेगाने दोनों भटकते हैं| साहित्य कभी पेड़ों की छाँव में सुस्ताता है या फिर कभी महफिलों में अदाकारी करते दिखता है| इमारतें जो अछूती रह गयी आधुनिकीकरण से, वो इलाहाबाद के इतिहास का विवरण करती हैं| किसी संस्कृति का पतन जब चरम पर पहुँचता है तब वह संस्कृति अपने उत्थान के लिए, पुनर्जन्म लेती है| संस्कृति का होना, यथार्थ को और मज़बूत करता है| इलाहाबाद एक पात्र है जो धर्मवीर भारती जी ने अपने उपन्यास, 'गुनाहों का देवता' में लिखा है| यहाँ तक कि जो इलाहाबाद से कोसों दूर रहते हैं उनके जीवन में भी इलाहाबाद मुख्य पात्र है| हम सब के लहू में थोड़ा-थोड़ा संगम बहता है| इलाहाबादी होने के लिए इलाहाबाद की मिट्टी में जन्म लेना अनिवार्य नहीं है| यहाँ की मिट्टी किसी को भी इलाहाबादी बना सकती है बशर्ते आप ख़ुद को इलाहाबाद को समर्पित करना चाहते हों|  


मेरा लिए इलाहाबाद बतौर जन्मस्थान होने के साथ, नानी का घर भी रहा है| अम्मा बताती है कि जब मैं दुनिया में आयी तो नानी को गए क़रीब दो साल हो गए थे| पर घर तो नानी का था, नानी का रहा| नानी अपने बाद, उनका इलाहाबाद, मुझे सौंप गयी| अम्मा की गोद में रहते हुए थोड़ा-बहुत इलाहाबाद देखा और उससे ज़्यादा तस्वीरों में| बस इतना सा रिश्ता रहा है इस शहर से| छुट्टियों में नाना से मिलने, नानी के घर जाते थे| अब नाना भी नहीं रहे तो, नानी का घर कहाँ बच पाता लेकिन हमारी स्मृतियों के संदूक में वह घर और इलाहाबाद दोनों सुरक्षित हैं| पहले इलाहाबाद हर साल जाना होता था फिर हर साल, कुछ साल में बदला और अब वजह ढूंढनी पड़ती है उस तरफ़ की गाड़ी पकड़ने के लिए|


इलाहाबाद भी तब्दीलियों को आत्मसात कर रहा है| 'हमारा' इलाहाबाद बोलने में थोड़ी झिझक हो रही है| वह इलाहाबाद किस तरफ़ जा रहा है इसका अंदाज़ा लगाने पर केवल अफ़सोस ही होता है| और कितने सारे इलाहाबाद हैं जो जा तो आगे की ओर रहें हैं लेकिन वास्तव में बहुत पीछे छूट रहे हैं| 


 ~आमना

Comments

  1. Par ghar toh nani ka tha, nani ka raha❤️

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  2. This is one of your Best, A!
    कितना अच्छा लिखा है😊
    "कुछ घटनायें संयोग के भरोसे बैठी होती हैं" many would have felt it so many times, but to say it in so few words this simply and this beautifully!! Kudos!!!

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