Skip to main content

"डर का स्पर्श"

 


लिखते हुए हमेशा एक डर बना रहा है कि कहीं एक दिन अचानक सारे शब्द ख़त्म न हो जाये| कहीं सारी संवेदनाएँ लेखन न सोख ले| कोई स्याही को उड़ेल न दे| कहीं से कोई एक चुटकी न बजा दे जिससे सारे जादू का पर्दाफ़ाश हो जाये| कहीं कोरे कागज़ का ख़ज़ाना कोरा ही न रह जाये| आँखों के सामने वाली,पारदर्शी खिड़की कहीं धुंधला न जाये| एक वाक्य से दूसरे वाक्य की तरफ़ रुख़ करते हुए, एक लम्बी इंतज़ार की दरार, इंतज़ार करती मिलती है| इंतज़ार में होते हुए भी, इंतज़ार में न होने का अभिनय करना पड़ता है| अपने अतीत के लेखन से अनजान होकर, वर्तमान के लेखन की नींव रखनी पड़ती है| उस बड़े से डर का एक छोटा-सा हिस्सा यह भी है कि कहीं कोई लिखे गए शब्दों से, लिखे जा रहे शब्दों के बीच जानी-पहचानी रेखा न खींच दे| 


डर धीमे-धीमे हमारी तरफ़ अपने पांव बढ़ाता है लेकिन हमें अचानक मालूम चलता है कि हम उसकी गिरफ़्त में आ चुके है| हम सन्न रह जाते हैं| हम छटपटाना चाहते हैं और छटपटाते भी हैं हूबहू मछली की तरह; अंत तक कामयाबी हाथ नहीं लगती लेकिन नाकाम कोशिशों की फ़ेहरिस्त में इज़ाफ़ा ज़रूर होता है।लिखते हुए अक्सर हाथ कांपते है, विचार कांपते है कि लेखन अपना हाथ न छुड़ा ले| हम आज में, इस क्षण में कहाँ ही जी पाते हैं? हम तो आदी हैं भूत और भविष्य काल में जीने के| 


डर के साथ हर वक़्त झूझना होता है| कायर होते हुए भी, बहादुर दिखना पड़ता है| कुछ कामों को करने के लिए हम बाध्य होते है लेकिन लेखन के साथ कोई बाध्यता नहीं है| एक अनंत तक जाती कतार का हिस्सा मैं भी हूँ| कतार के समानांतर एक नदी बहती है| उस नदी में नाव दिखती है लेकिन मल्लाह नज़र नहीं आते| ध्यान से देखने पर कतार में खड़े दिखते हैं| 


मेरे पास भेंट करने के लिए शब्द के सिवा है भी क्या? अब आँसू नहीं सींचते हैं आँखों को, निढाल-सी काया है और शून्य में खोये हुए विचार हैं| कभी-कभी लेखन के इर्द-गिर्द सवालों के मसीहा आ कर बैठ जाते हैं| मैं ज़वाब दरयाफ़्त करने के बजाये डर के चलते, सिकुड़ने लगती हूँ, यह जानते हुए भी कि लेखन से मेरा विस्तार हुआ है| 


~आमना

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"चुप्पियाँ"

अब मुझे चुप रहना अजीबो-ग़रीब लगने लगा है। सच कहूँ तो, यह अपनी अनुभव की गई भावनाओं के साथ धोखा करने जैसा है। हम अक्सर चुप रहने का यह कारण देकर खुद को सवालों की लंबी सुरंग में फँसने से बचा लेते हैं कि हमारे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। लेकिन क्या सच में शब्दों का ब्रह्मांड इतना सीमित है? या फिर हम शब्दों की खोज में प्रयास करने से कतराते हैं? चुप्पी किसी सवाल का जवाब हो सकती है, लेकिन जब एक चुप्पी का जवाब दूसरी चुप्पी बनने लगे और फिर सैकड़ों चुप्पियाँ एक-दूसरे को धकेलती हुई हमारी ओर कुचलने के भाव से बढ़ें, तो क्या यह गहन शोध का विषय नहीं बन जाता? हम अनगिनत भाषाओं की हवा में साँस लेते हैं, लेकिन जब चुप्पी तोड़ने की बारी आती है, तो हम साँस रोक लेना अधिक उचित समझते हैं। दरअसल, हम चुप्पियों से भरे पुतले बन चुके हैं। हम स्पर्श करने में संकोच करते हैं, फिर भी जैसे-तैसे पहला क़दम बढ़ा लेते हैं, लेकिन जब बात चुप्पी के सिरों को खोलने की होती है, तो हम हज़ारों क़दम विपरीत दिशा में रखने में सहज होते हैं। शुरू में चुप्पियाँ आलाप के मानिंद लगती हैं, पर समय बीतने पर वो विलाप में परिवर्तित हो जाती...