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"आधे-अधूरे"


परदे से झाँकती हुई सूरज की किरण मुँह पर गिरी तो आँख अपने आप खुल गयी| बड़े दिनों बाद बिना किसी अलार्म से उठ कर आज़ाद सा महसूस हो रहा है| बिस्तर को समेटते हुए, मेज़ पर रखे हुए गिलास पर नज़र गयी कि उसमें अभी आधा पानी बाक़ी है| 

(आधा न पूरे की श्रेणी में आता है न अधूरे की लेकिन आधा, आधी आशा और आधी निराशा पूरी देता है|)

मोहन राकेश द्वारा लिखा गया नाटक, "आधे-अधूरे" याददाश्त की चौखट पर बैठा दिख रहा है| बचपन में कोई सवाल पूछता था कि क्या बनना है तो चंचल मन में हर दिन कोई नया-सा जवाब होता था फिर पूरे दिन बस वही बन कर घूमना रहता- नादानी और बेख़बरी से भरपूर दिन| लेकिन अब, पूरा दिन आधा कुछ बनने और कुछ नहीं बनने में निकाल देती हूँ| अंत में आधी-अधूरी ही बच पाती हूँ|

हर एक सुबह एक आस जन्म लेती है कि आज कुछ पूरा सा होगा लेकिन शाम आते-आते यह आस दम तोड़ देती है| गला गिलास का पूरा पानी गटकना हर रात भूल जाता है| हर संवाद के बाद संवाद का मूल्यांकन करते हुए हमेशा कुछ पूरी बातें, अधूरी मिलती हैं| आधे-अधूरे के बिखराव से पूरी दुनिया भरी हुई है| अधूरी चीज़ों का ख़ूब क़यास लगाया जाता है| चीज़ें जो पूरी मालूम पड़ती है उनकी तलाश जारी रहती है लेकिन हम कभी अधूरी चीज़ों को पूरा करने की ताक़त नहीं दिखाते|  

हर एक क़दम चुनौती की तरफ़, संशय के साथ बढ़ता है| आधे-अधूरे होने की कसक, आधी-अधूरी चीज़ों से मुँह मोड़ने के लिए उकसाती है| हर एक क्षण कुछ न कुछ आधा-अधूरा ही घट रहा होता है| मैं पूरे तरीक़े से आधी-अधूरी घटनाओं को दर्ज करते हुए ख़ुद को पाती हूँ|


~आमना 


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