वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
~साहिर लुधियानवी
साहिर साहब के इस शेर से बड़े लम्बे अरसे तक मैंने इत्तिफ़ाक़ नहीं रखा पर अब सही लगने लगा है|
(कैसे समय के गुज़र जाने के बाद हम उन चीज़ों से इत्तिफ़ाक़ रखने लगते हैं जिनसे हमें शुरू में खीझ होती रही है|)
कितने सारे अफ़साने हैं जिनका अंजाम तक पहुँचना नामुमकिन रहा लेकिन वो किसी ख़ूबसूरत मोड़ पर छूट भी नहीं सके। चीज़ों का छूटना और पकड़ना हमारे हाथों में कहाँ ही होता हैं। हम तो कठपुतली के समान, अपने आसपास के हालातों के निर्देशन पर अभिनय करते मिलते हैं। अभिनय कब मजबूरी से आदत में तब्दील हो जाता है इसका अंदाज़ा भी हम नहीं लगा पाते| जिधर पानी का बहाव रहता है उधर नदी बहती है और इसी तरह से, हम भी समय के बहाव में बहते हैं|
जीवन की परिक्रमा करते हुए वो ख़ूबसूरत मोड़ भी देखने को मिल जाते हैं जहाँ अफ़साने शायद छूट सकते थे| हर अफ़साना अंजाम न सही लेकिन एक ख़ूबसूरत मोड़ का मोहताज तो होता ही है| हम आगे बढ़ते हुए कितने सारे लोगों को मायूस करते हैं और आपने आप को अचंभित| जब कभी किनारे पर रुक कर समय के बहाव की गति का अंदाज़ा लगाते हैं तो दूसरे किनारे पर कोई परछाई खड़ी हुई हमें घूरते हुए जान पड़ती है| उसका घूरना हमें असहज करता है| हम तुरंत अपनी नाव पर सवार होकर समय के बहाव के साथ बहना शुरू कर देते हैं|
~आमना
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