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"पुकार"

 


मैं कमरे के बीचों-बीच खड़े होकर, आँखें बंद करके लम्बी-लम्बी साँसें लेती हूँ और जब धीमे-धीमे आँखें खोलती हूँ तो चारों ओर से अतीत, मुझे दबोचने के लिए दौड़ता दिखाई पड़ता है| वर्तमान मेरा पांव कस कर पकड़ लेता है| भविष्य कोने में पालथी मारकर बैठा, सारा तमाशा देखता है| 

कमरे के केंद्र को मंच में बदलने में ज़्यादा समय नहीं लगता है| किताबों के टीले, परदे, खिड़कियाँ और दीवार में जड़े फ्रेम, शीघ्र ही दर्शक का अवतार धारण कर लेते हैं| 

मैं मंच पर अकेली रह जाती हूँ| मुझे अकेले होने के ख़याल से ही ख़ौफ़ होता रहा है पर हर बार मैं अकेली ही रह जाती हूँ| मैं गिड़गिड़ा नहीं सकती, मैं चुप्पी को गले से उतार भी नहीं सकती और तब अभिनय करने का एक मात्र विकल्प ही बचता है| अभिनय....जिससे मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा.....

मेरे दर्शक मेरा अभिनय देख कर कहीं भाग भी नहीं सकते और ना ही मेरे अभिनय का विवरण वे कहीं बाहर जा कर कर सकते हैं| मैं बार-बार बाल-बाल बचती हूँ| मैं बार-बार बचने के बाद भी मरने की कगार पर ख़ुद को मिलती हूँ और फिर बच जाती हूँ| अचानक वर्तमान की पकड़ छूट जाती है, अतीत अब तक जा चुका होता है और भविष्य के अदृश्य होने के बाद, खाली छूटी जगह को घेर कर मैं बैठ जाती हूँ| काफ़ी देर तक मैं स्तब्ध बैठी रहती हूँ| किसी एक क्षण कहीं से आती मेरे नाम की पुकार, मुझे वापस जीवित कर देती है| मैं पुकार की ओर दौड़ जाती हूँ| 


~आमना 


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