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" शायद "


जनवरी अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच चुकी है| कोहरा छटने लगा है और धूप अब चुभनी शुरू हो गयी है| लोगों में थोड़ी और तेज़ी आ गयी हैं| झुकी हुई पीठ, अब धीमे-धीमे सीधी होने लगी है| नए साल का जोश फीका पड़ रहा है| कारोबार-ए-ज़िन्दगी में वापसी हो रही है| इत्मीनान से बैठने के दिन छूट रहें हैं| नए सिरे से पुराने साल को दोहराने के दिन क़रीब आ रहें हैं|


शायद जीवन का सार ही छोड़ना और पकड़ना है| महीनों के अपने रंग हैं लेकिन जीवन के नियम के रंग में रंगना ही, जीव होने की पहली और आख़िरी शर्त है| कौन कितना मृत है, यह दिसंबर बता सकता है और कौन कितना जीवित, यह जनवरी| दोनों महीनों की तस्वीर में, आदमी अपनी तासीर ढूंढ़ता है| दिसंबर से जनवरी को मिला ख़ाली सफ़्हा, जनवरी से दिसंबर तक भरने में गुज़रता है|


मुझे कभी दिसंबर और जनवरी की लय समझ में नहीं आयी| एक में दुनिया-जहाँ का ठहराव और दूसरे में चंचलता| एक में दुःख से निवारण और दूसरे में सुख की अभिलाषा| एक हिज़्र के मानिंद और दूसरा वस्ल| शायद कुंवर नारायण ने अपनी कविता 'अंतिम ऊँचाई' में दिसंबर और जनवरी को ध्यान में रखते हुए यह पंक्तियाँ लिखी होगी-


शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं

कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,

लेकिन अन्त तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।

हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती

कि वह सब कैसे समाप्त होता है

जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था

हमारे चाहने पर।


~आमना 

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