ख़ामोशी हमें निगल लेगी। संवाद हमें बचा लेंगे। ये बातें कितनी भी ज़ोर से कही जाएं, लेकिन हमेशा कम ही आत्मसात की जाती हैं। शब्दावली शब्दों से लबालब भरी ही क्यों न हो, फिर भी हम संवाद से कोसों दूर रहते हैं। हम बचना तो चाहते हैं, लेकिन बचने के लिए पहल नहीं करना चाहते। हमें लगता है कि हमारा बिखराव सबके सामने आ जाएगा—हम सामने आ जाएंगे। हम चाहते हैं कि हमारे बिना बोले, हमें समझ लिया जाए। हमारी ख़ामोश चीखों को ख़ुद-ब-ख़ुद सुन लिया जाए। हमारी आँखों में गोते लगाती ख़ामोशी को, शायद कोई बिना पूछे ही किनारे का पता बता जाए।
सोचने के लिए समय निकालने पर हर दूसरा आदमी यही सोचता है कि वह कितना अभागा है। उसके द्वार संवाद नहीं पहुंचे, न ही वह ख़ुद किसी के द्वार संवाद बनकर पहुंच सका। ख़ामोशी में लीन, वह अपने द्वार पर बैठा रहा और संवाद के स्वप्नों में भटकता रहा।
कभी संवाद से टकराना हो जाता है—ख़ैर, छोड़िए, जाने दें बोलकर हम आगे बढ़ जाते हैं। हमें ख़ामोशी सहज और संवाद असहज कर देता है। अब हमारे संवाद, जो ख़ुद से होते हैं, उनमें भी ख़ामोशी पांव पसारने लगी है। भीतर के बिखराव को संवाद बुन सकते हैं। बाहरी बिखराव कब तक ढाल का काम करेंगे? कब तक हम धैर्य का दुरुपयोग करते रहेंगे?
मरने से पूर्व संवाद का आलिंगन निगलती हुई ख़ामोशी को निगल सकता है। मरने के पश्चात, संवाद भी देह त्याग देता है और काश में विलीन हो जाता है।
~आमना
बहुत सुंदर लिखा है। पर संवाद के लिए शायद दो छोर होने आवश्यक होते हैं ना. Monologue has a limited utility and even limited life.
ReplyDeleteReminds me of song which I have never heard ..."like an actor all alone"!
True 😀
ReplyDeleteIs par bhi likh dijiyega sanvaad kaise kare
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