कुछ दुःख हमारा पीछा कभी नहीं छोड़ते। समय के साथ वे बड़े और गहरे हो जाते हैं। वे हमारे आगे नहीं निकलना चाहते, न ही हमें मार गिराना चाहते हैं। हम समय के साथ बाहरी तौर पर विस्तृत होते हैं और अंदरूनी तौर पर सिकुड़ते हैं। वे कुछ दुःख हममें रच-बस जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उन दुःखों के फैलाव के चलते हमारे बाहरी तौर-तरीके बदलने लगते हैं या हम कुछ अलग से हो जाते हैं। केवल हमारे भीतर कुछ बदलाव आता है। बड़े होने के साथ हम एक अदृश्य लकीर साथ लेकर घूमते हैं। हम अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि कब लकीर के इस या उस पार जाना है, या फिर लकीर पर रहना है।
अनुभवों का खाली बस्ता जब धीरे-धीरे भरना शुरू होता है, तो हम भी सीख लेते हैं—किसी भी दुःख की रस्सी इतनी मज़बूत नहीं होती कि उसपर लटका जा सके। कौन सा सुख क्षणिक है और कौन से दुःख में सुख छुपा हुआ है—यह भी समय के चलते, खुलता है। हम अपने सुख की तुलना हमेशा करते हैं, लेकिन हमारा दुःख सबसे विषादपूर्ण ही होता है, ऐसा हम मानते हैं। दूसरे की थाली में परोसा गया पकवान हमेशा मंत्रमुग्ध करता है, और अपनी थाली से हम हमेशा ही असंतुष्ट रहते हैं।
हम सबकी अपनी-अपनी दुःख की परिभाषाएँ हैं और दुःख से जूझने की अपनी कला। किसी की आँखों में दुःख का एक तिनका दिख जाता है तो कोई दुःख में दुखी होने से मुक्ति पा लेता है। अंत में, अंत तक हम सुख के पीछे भागते रहेंगे और कुछ दुःख हमारे पीछे।
~आमना
सुंदर विमर्श! साधुवाद आपको।
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