कौन से सिरे को पकड़कर, हर सिरे से छुटकारा पाया जा सकता है? कितना गिरकर, गिरने का भय ख़त्म हो जाता है? कितना प्रेम, प्रेम में बने रहने के लिए ज़रूरी होता है? कितनी लंबी सांस भीतर लेकर, सांस छोड़ने पर सांस का मोह छूट जाता है? कितनी दूर तक देखने पर, पीछे का दिखना धुंधला हो जाता है? कितना पढ़ने पर, अभी बहुत पढ़ना बाकी है, थोड़ा कम हो जाता है? कितने जीवन को छूकर गुजरने पर, अपना जीवन छुई-मुई के पौधे की तरह लगना बंद हो जाता है? कौन सा प्रश्न है, जिसका उत्तर मिलने पर और उत्तरों की अभिलाषा से आदमी विरक्त हो जाता है?
कभी-कभी स्वयं को भी आश्चर्य होने लगता है कि कितने सारे सवालों से घिरी रहती हूँ या ख़ुद को सवालों के घेरे में धकेलना, अपने लिए की गई साज़िश का एक हिस्सा है। सवालों की उलझनों के बाद भी अपना साम्य नहीं खोती हूँ। स्मृतियों में खोई-खोई जब थक जाती हूँ, तो चंद मिनटों की एक छोटी यात्रा, खुले आकाश के नीचे, खुली हवा में सांस लेने निकल जाती हूँ। एक छोटी सी यात्रा सही, सवालों की उथल-पुथल से कुछ देर के लिए निजात मिल जाती है।
जितना कुछ बाहर है, उससे अनगिनत गुना ज़्यादा भीतर है। मैं जो हूँ, और जो भी नहीं हूँ, और जो हो सकती हूँ, उसका एक अपना कोलाहल है, जिसकी कोई ध्वनि नहीं है। मुझे भी सवालों की लय पकड़नी पड़ती है— अपनी लय जानने के लिए|
~आमना
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