एक दिन वे सब हमें छोड़कर चले जाएंगे जो हमें कभी नहीं छोड़ना चाहते हैं। तब हम अपने आप के साथ दुनिया के किसी एक कोने में पड़े रहेंगे—लेकिन हम पड़े-पड़े सड़ेंगे नहीं और शायद खिलेंगे भी नहीं। छूट जाने को हम विश्वासघात नहीं, किसी विपदा की तरह देखेंगे। हम कुछ देर बाद उस कोने से उसी प्रेम के साथ उठेंगे जिसने हमें हर क्षण, जीवन की सुंदरता का अनुभव कराया और जीवन की क्रूरता को क्षणिक सिद्ध किया। कहाँ-कहाँ से हम छूटे और किस-किस को हमने छोड़ा, इससे बहुत आगे बढ़कर भी, प्रेम के प्रभाव में हम देखेंगे दूर तक कहीं पीछे। उन जगहों को हम दूर से देखकर, अपनी तय की हुई दूरी का अंदाज़ा लगाएंगे। और किसी भी दिशा से देखने पर न हम पीड़ित होंगे न दोषी और न ही वह क्षण।
किसी से विदा लेते या किसी को विदा करते हुए हमारे आँसू हमारी अनुमति के बिना ही बहने लगते हैं। हम आँसू छुपाने के लिए दाएं-बाएं देखते हैं, लेकिन हम उस समय, उस व्यक्ति के सिवा किसी को नहीं देखना चाहते। हम दर्ज़ करना चाहते हैं—छूटना और छोड़ना। छोड़ना और छूट जाना संभवतः इस कृत्रिम दुनिया की सबसे बड़ी वास्तविकता है। हम नियमित रूप से छूटते हैं और दूसरों को छोड़ते हैं। लेकिन जब हम वहाँ से छूटते हैं जहाँ से हमें छूट जाने का भय होता है—तब हम उस छूट जाने को किसी भी विपदा की परिभाषा में समेट नहीं पाते।
अगर जीवन में केवल एक कोना होता तो शायद हम पड़े-पड़े सड़ जाते लेकिन जीवन हमें अनगिनत कोनों से भेंट कराता हैं जहाँ हम खिल सकते हैं और कभी-कभी गिनती की विपदा पर हँसते-हँसते रो सकते हैं।
~आमना
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