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"ज़िन्दगी की साज़िश"

 


एक उम्र के बाद, हर नज़दीक आती हुई चीज़ों से डर लगना शुरू हो जाता है। हम तहक़ीक़ करने लगते हैं — उनके ठहराव का और अपनी गतिशीलता का। अगर इन दोनों का मिलन हुआ तो क्या सिर्फ़ नुक़्सान होगा या फिर थोड़ा-बहुत नफ़ा भी रहेगा। ज़रूरी नहीं कि बाल सफ़ेद होने पर और माथे पर लकीरें उभरने पर ही इंसान को, फूँक-फूँक कर क़दम रखने का शुऊ'र हासिल होता है। बाज़-औक़ात ज़िन्दगी उम्र के पैमाने से उठकर, हसीन तोहफ़े देती है। दिल सँवारने से ज़्यादा, दिल तोड़ती है। इंसान बचाये रखना चाहता है अपने टूटे हुए दिल को, और टूटने से। दिल का टूटना किसी ख़ास उम्र के मुक़द्दर में नहीं लिखा होता। एक दिल ही तो है जिसके टूटने पर आवाज़ नहीं होती, लेकिन शोर होता है और इंसान उसमें पनपता है और फिर कहीं जाके उसे अपने संगीत की लय मिलती है।    

ज़िन्दगी की चाल में कभी-कभी लोग हाल-चाल पूछने के लिए रुकते है तो शुरू में समझ में नहीं आता कि अपने हाल को कैसे शब्दों में ढाला जाये और जब तक वाक्य बनता है तब तक लोग आगे बढ़ जाते हैं। लोगों की आवाजाही लगातार होती रहती है लेकिन कुछ लोग अलग होते हैं। वे रुक जाते है कुछ देर ही सही — हमें सुनते हैं, हमारी चुप्पी को अपने शब्दों में पिरो कर, हमारी चुप्पी से हमीं को अवगत करते हैं। सुन्दर होते हैं ऐसे लोग। अपनी सुंदरता से हमारी कुरूपता को छूते है। हमारी भेंट, हमीं से कराते है। हम हर साज़िश करते है कि वे हमेशा हमारे नज़दीक रहें या फिर हम उनके। अच्छी नियत से की गयी साज़िश भी, ऊपरवाले के हिसाब-किताब में कुछ भी थोड़ा-बहुत इधर-उधर नहीं कर सकती। लेकिन हम दुआ कर सकते हैं— रोते हुए और हँसते हुए भी। हम प्रेम कर सकते हैं लेकिन आने वाले वियोग से नहीं बच सकते। अपने हिस्से का वियोग हमें गुज़ारना ही होता हैं। ऊपरवाले का निज़ाम समझना, समझ से परे है। चलते-चले जाना सदियों की रीत है और इस रीत से दायें-बायें होने पर केवल एक गहरी खाई है जो सिर्फ़ निगलती है, उगलती नहीं। 

~आमना 


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