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"दिल और दिल्ली"

दिल्ली से लौटने पर कितनी ही बार पाँवों को इस दृढ़ता के साथ झटका कि अब कहीं जाकर दिल्ली की गति पाँवों  से निकलकर धूल में ओझल हो जाएगी। लेकिन दिल्ली की गति न तो पाँवों का दामन छोड़ रही है, न ही विचारों की उथल-पुथल को बख़्श रही है। महज़ बीस दिनों का ही रिश्ता रहा दिल्ली से, लेकिन यह मुट्ठी भर दिन घर पर बिताए गए दो वर्षों पर भारी पड़ रहे हैं। बड़े शहरों की एक अपनी पकड़ होती है। आप जितनी दूर जाते हैं, उस शहर की पकड़ का अंदाज़ा उतना ही अधिक होता है। बड़ा शहर आपकी चाल-ढाल को तब ही पनपने देता है, जब उसके कंक्रीट के जंगल की हवा और आपके सपनों की साँस लेने की इच्छा के बीच कोई समन्वय बनता है। इन शहरों की अपनी एक गति होती है, और पाँव अनायास ही उस गति में रंग जाते हैं।

"समय कितना हो रहा है?" — यह जानने के लिए आपको अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखने की आवश्यकता नहीं होती। किसी भी चेहरे को देखकर समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मेट्रो में चढ़ते-उतरते हुए, छोटी जगहों की ख़ुशबू का भी आना-जाना लगा रहता है। किसी स्टेशन पर कोई सपना चढ़ता है और किसी पर दिनभर की थकान उतरती है| कहीं उमंग, कहीं उम्मीद— और फिर यही सोचकर कि "आज मेरा दिन नहीं था," कोई कल फिर से नए सिरे से हाथ-पैर मारने निकल पड़ता है। बड़ा शहर कभी इतना बड़ा नहीं होता कि वह किसी ढीठ, मेहनती व्यक्ति के सब्र का फल झूठा कर दे। बड़े शहर की मिट्टी की बनावट को समझना तभी संभव होता है, जब आप अपने छोटे-से जीवन का एक लंबा अध्याय उस शहर के नाम कर देते हैं। हालाँकि जो लोग छोटे शहरों से विस्थापित होकर बड़े शहर पहुंचे हैं, उनमें एक बड़ा वर्ग अपनी मिट्टी में दबी विशालकाय जड़ों को गाहे-ब-गाहे याद करता है, और शेष, छोटा समूह अपनी मिट्टी की ख़ुशबू अब भी ओढ़े हुए शहर की गलियों में भटकता रहता है।


देश की राजधानी जाना पहली दफ़ा नहीं था, हाँ, लेकिन ठहरकर दिल्ली को भागते हुए देखना, ये पहली बार था। कुछ हैरानी हुई और कुछ ख़ुद को कोसा — इतनी भीषण गर्मी में आने के लिए। पसीने से लथपथ लोग, गर्म हवा के थपेड़े — मानो किसी ने तंदूर में पटक दिया हो। ख़ैर, अब जब दिल्ली आ ही गयी थी, तो दिल्ली घूमना लाज़मी था। 'हुमायूं का मकबरा' से सिलसिला शुरू हुआ। वहां की भीड़ देखकर लगा, सिर्फ मैं ही पागल नहीं हूँ! पानी की एक-एक घूंट की कीमत और उससे मिलने वाली राहत ने दिल्ली की गर्मी से कुछ हद तक बचा लिया। उन कुछ दिनों के लिए चाय की जगह शिकंजी ने ले ली थी — जैसे शाहजहां ने कभी मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित कर दी थी। दिल्ली रास आई कि नहीं, यह सवाल हो सकता है। बिना सोचे मैं कह सकती हूँ कि बहुत रास आई। देश के अलग-अलग कोनों से आया मजमा दिल्ली को बहुत सुंदर बनाता है। ऐतिहासिक इमारतों के साथ दिल्ली का मिज़ाज बड़ा अचरज में डाल देता है। यूँ ही नहीं कहते, 'दिलवालों की दिल्ली।' माना जाता है कि दिल्ली सात बार उजड़ी और फिर बसी है। जिसने उजड़ना और बसना देखा हो, उसके पाँव अपने आप मज़बूत हो ही जाते हैं। 


रास्ते अक्सर ऊबड़-खाबड़ होते हैं, शायद यह बात 'जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय' के गेट तक सीमित है। सुंदरता का अगर कोई नया आयाम ईजाद किया जाए, तो उसे इस कैंपस को मद्देनज़र रखकर ही तय करना चाहिए। दाएं-बाएं लगे पेड़ों की छायाएं, सड़कों पर बिखरी हुई हैं।यह विश्वविद्यालय अरावली की पहाड़ियों की दक्षिणी रिज पर स्थित है, जहाँ कोई भी घंटों किसी कोने में बैठ सकता है। वहाँ बैठकर राजनीति पर विचार-विमर्श कर सकता है या किसी नई क्रांति को हरी झंडी दिखा सकता है या ख़ुद क्रांति हो सकता है। देश-विदेश के मसलों को चुटकियों में समझ और समझा सकता है। कुल मिलाकर, मैं पाँच बार परिसर में दाख़िल हुई—दो बार शाम के समय और तीन बार रात में। ढलते हुए सूरज ने शायद इसकी सुंदरता को घर लौटने का इशारा ज़रूर किया होगा, लेकिन यह सुंदरता टस से मस नहीं हुई। और न ही इसने चाँद की चमक के आगे घुटने टेके। चाय पीते समय महसूस हुआ कि चाय की रंगत हर कैंपस में लगभग एक जैसी होती है, लेकिन आस-पास की तासीर व बैठकी का प्रभाव उसे किसी अजब स्वाद में बदल देता है। यहाँ की हर एक सड़क में संगीत की-सी लय है, और उन पर चलते पैदल लोग जैसे मतवाले से लगते हैं।


तकनीक के विस्तार के साथ-साथ साइकिल रिक्शा चालकों के क्रोध में भी वृद्धि हुई है। उन्हें सवारी का मिलना ही आज के समय में बहुत बड़ी बात है। ऐसे में उन बेचारे लोगों से मोलभाव करना सबसे बड़ी नादानी है। थोड़ी देर उन्हें ध्यान से सुनने पर यह समझ आता है कि वर्चस्व की लड़ाई हर जगह है — फिर चाहे मामला रोज़ी-रोटी का ही क्यों न हो। एक ऑटो वाले भैया की रास्तों की याददाश्त देखकर मैं इतनी अचंभित हो गई कि बोल पड़ी — 'वाह भैया! आपको रास्ते कितनी अच्छी तरह से याद हैं।' भैया बोले, 'मैडम, गूगल मैप्स आने से पहले से ही ऑटो चला रहे हैं। दिल्ली का फैलाव तो हमने अपनी आँखों के सामने होते देखा है।' 


दिल्ली की यात्रा में पूर्णविराम लगाने का जब समय आया, तो पाँव ने एक तरह से विद्रोह किया और दिल ने शोकगीत गाना शुरू कर दिया। दिल्ली की पुकार अब धीमे-धीमे विलुप्त होने की दिशा में बढ़ चली थी, जब स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस ने लखनऊ की तरफ़ रुख करने के लिए अपने इंजन से एलान कराया। मैं हमेशा विरह से ख़ौफ़ज़दा रहती हूँ, फिर भी बार-बार उससे टकराना होता है। कितने सारे लोग स्टेशन पर अपने प्रियजनों को विदा करने पहुँचे थे — उनका गले मिलना, हाथ मिलाना, इस बात की आश्वस्ति थी कि अगली बार मिलने तक, स्पर्श की स्मृति के सहारे, विरह के दिन कम कठिनाई से गुज़रेंगे। रेलगाड़ी की गति अब दिल्ली की गति को भी मात देने लगी थी। खिड़की वाली सीट पर मैंने अपनी दुनिया पसार ली। जैसे-जैसे पेड़, खेत, गाँव, क़स्बे, शहर, फाटक, अनजान लोग पीछे छूटते जा रहे थे, वैसे-वैसे ताज़ी स्मृतियाँ और लगभग बासी हो चुकी यादें ज़ेहन में नए सिरे से आवागमन करने लगीं। ख़ुद से ख़ूब लंबे-चौड़े संवाद हुए। अंत में रेलगाड़ी ने अपनी गति को विश्राम देते हुए हम यात्रियों को लखनऊ पहुँचा दिया। लखनऊ ने पहले गरजते हुए बादलों से स्वागत किया, फिर मूसलाधार बारिश भेंट में मिली

मेरी यात्रा का लखनऊ गंतव्य नहीं था— और शायद यहाँ से 170 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा क़स्बा भी नहीं। घर पहुँचना भी यात्रा का हिस्सा है, और बार-बार घर से निकलना भी। विनोद कुमार शुक्ल जी याद आ गए —

"घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता, जितना लौटने के लिए होता है।"

फिलहाल, दिल्ली से इतनी दिल्लगी ठीक है। फिर किसी रोज़, किसी बड़े शहर की दिलकशी में अभी से अपनी रीढ़ की हड्डी को मज़बूत करना होगा और पाँवों की गति को और तेज़, बहुत तेज़।

~आमना 

Comments

  1. Aapki nazron se apni dilli ko dekhkar accha laga❤️❤️

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  2. This is so, so beautifully written, A!
    And it's been so long that I read something this wonderful!! This alone is a satisfying Haasil of your Dilli ka Safar. May you have many more!!!

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