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"एक कमरे के मानिंद"


 

कभी-कभी मैं एक विचार को एक कमरे के मानिंद पाती हूँ। उसे उसके हर कोने से देखती हूँ। हर कोने के अपने विचार होते हैं। एक विचार को संख्या में एक तो गिना जाता है, लेकिन वह असल में विचारों का एक जत्था होता है। हर परत की अपनी आक्रामकता होती है। एक विचार से दूसरे विचार तक लंबी छलांग — और बीच में खाई में गिरने का भय। यथार्थ की घटनाओं से उपजे काल्पनिक विचार, विचारों का अपना लघु नाटक, और हम हाथ पर हाथ धरे दर्शक।

बीते दिनों एक विचार ने कई दिनों तक कमरे में गुप्त बैठक की। उस विचार का उत्प्रेरक एक फ़िल्म का अंत था। किसी को बड़े अरसे से लगातार उत्साह से वह फ़िल्म देखने के लिए कहती रही।

(आप जिनसे प्यार करते हैं, उन्हें वह सब कुछ दिखाना चाहते हैं जो आपको सुंदर लगता है — या फिर वह सब कुछ, जिसे शब्दों में परोसना असंभव होता है।)

आख़िरकार फ़िल्म देख ली गई। फ़िल्म ठीक लगी — अंत कुछ समझ में नहीं आया। सुई केवल अंत पर अटकी रही। सुनते ही मन ही मन सोचा कि सबको सब कृतियों का शऊर कहाँ हासिल होता है। लेकिन तुरंत ही पांव को ज़मीन की ओर खींचा | बस फिर क्या — उनके व्यक्तिगत विचार को सर आँखों पर रखा गया, और साथ में टूटे दिल को जोड़ने के लिए, फ़िल्म को स्वयं को अनगिनत दफ़ा दिखाने के बाद, पुनः दिखाया गया।

जब हम किसी यात्रा को परदे पर देखते हैं, तो उसके आरंभ में ही उसका अंत तय कर लेते हैं — वह अंत जिसमें दृढ़ता होती है, संभावना नहीं। हम हर जगह “अंत कैसा होगा” खोजते रहते हैं। “अंत में सब ठीक हो जाता है” — इस धारणा को लेकर हम ठीक-ठाक यात्रा से भी त्रस्त रहते हैं।

फ़िल्म के अंत से जुड़ा विचार, कहानी से निकलकर बाहर, तरह-तरह के अंत के बारे में विचार-विमर्श करने लगा। गुप्त बैठक का कोई निचोड़ नहीं निकला, हाँ — लेकिन यह ज़रूर महसूस हुआ कि अंत से ज़्यादा मज़ा यात्रा में है।

आपको घर कर जाने वाली अनुभूतियाँ ज़रूरी नहीं कि सामने वाले को वैसी ही लगें। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने अनुभवों और पृष्ठभूमि का उत्पाद होता है। अगर सबका एक ही मत होगा, तो सब एक जैसे दिखने लगेंगे; सबके कोने एक जैसे रह जाएँगे, और सब ऊब जाएँगे। विचारों की विविधता ने ही हमें संवेदनशील और सहनशील बनाए रखा है। केवल प्रेम ही दुनिया को आगे बढ़ाने में कारगर नहीं है; आलोचना का भी पूरा हाथ है — आगे का रास्ता दिखाने में।

(P.S. The film was 'The Lunchbox')

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