मैं पागलों की तरह सड़क के बीचों-बीच दौड़ रही हूँ जबकि दौड़ने से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा| (अक्सर हम वे सपनें देखते हुए ख़ुद को पाते हैं जिनका कोई सर-पैर नहीं होता|) सहसा मेरी नींद टूटी| (शहर में नींद खुलती नहीं, टूटती है|) मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-ब-तर पड़ा है| मैं बिना सोचे बालकनी की तरफ दौड़ी कि शायद बाहर की ठंडी हवा लगने से कुछ जान में जान आ सकें| भीतर जो कुछ दौड़ रहा था वो अब बाहर भी दिखाई दे रहा है| दौड़ता, हांफता हुआ| कृत्रिम रोशनियों ने सारे शहर को उजाले में छुपा दिया है| सड़कों पर चंद गाड़ियाँ अभी भी दौड़ रही हैं| शहर का एक छोर कहीं अनंत में लटका हुआ है और दूसरा छोर कहीं शून्य में पड़ा हुआ है| मैं शून्य से अनंत तक पलक झपकते दौड़ गयी मानो मेरी कोई पसंद की चीज़ शून्य से अनंत में जा के छुप गयी हो| शहर हमेशा से मेरे गले में फँसी हड्डी के समान रहा है| इस हड्डी की बनावट में सपने और ज़रूरतों के खनिजों का उपयोग हुआ है| मुझे शहर से कभी घृणा नहीं रहीं और न ही कभी प्रेम रहा| (जीवन में कभी कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिसमें न घृणा होती है न प्रेम|) ज...