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Showing posts from September, 2024

"दौड़ता शहर"

  मैं पागलों की तरह सड़क के बीचों-बीच दौड़ रही हूँ जबकि दौड़ने से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा| (अक्सर हम वे सपनें देखते हुए खुदको पाते हैं जिनका कोई सर-पैर नहीं होता|) सहसा मेरी नींद टूटी|   (शहर में नींद खुलती नहीं, टूटती है|) मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-ब-तर पड़ा है| मैं बिना सोचे बालकनी की तरफ दौड़ी कि शायद बाहर की ठंडी हवा लगने से कुछ जान में जान आ सकें|  भीतर जो कुछ दौड़ रहा था वो अब बाहर भी दिखाई दे रहा है| दौड़ता, हांफता हुआ|  कृत्रिम रोशनियों ने सारे शहर को उजाले में छुपा दिया है| सड़कों पर चंद गाड़ियाँ अभी भी दौड़ रही है| शहर का एक छोर कहीं अनंत में लटका हुआ है और दूसरा छोर कहीं शून्य में पड़ा हुआ है| मैं शून्य से अनंत तक पलक झपकते दौड़ गयी मानो मेरी कोई पसंद की चीज़ शून्य से अनंत में जा के छुप गयी हो| शहर हमेशा से मेरे गले में फँसी हड्डी के समान रहा है| इस हड्डी की बनावट में सपने और ज़रूरतों के खनिजों का उपयोग हुआ है| मुझे शहर से कभी घृणा नहीं रहीं और न ही कभी प्रेम रहा| (जीवन में कभी कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिसमें न घृणा होती है न प्रेम|) जब पहली बार पगडंडियों से होक

"अम्मा का बच्चा होना"

माँ को अपनी माँ के बारे में बात करते हुए मुझे माँ में उनकी माँ की बेटी दिखती थीं, चंचल, नादान बच्ची| शायद वह भूल जाती थीं अपना माँ होना| उन्हें दिखने लगता था झूला जिसको झूलते समय उन्हें चोट लगती थी और वह दौड़ती हुई माँ के पास पहुँचते ही लिपट जाती थी| मैं अम्मा से लिपट कर उन्हें उनका माँ होना याद दिलाती थी| (बच्चे रहते हुए हम अपने माँ-बाप का कभी बच्चा होना सोच नहीं पाते हैं|) माँ का होना सुकून हैं| माँ के न होने पर पिता के भीतर की माँ बाहर आती हैं जिसे पितृसत्ता के विचारों ने नहीं पाला-पोसा होता हैं| कोमलता और ममत्व से ओतप्रोत पिता, माँ हो सकता हैं पर वह माँ की जगह हमेशा रिक्त छोड़ देता हैं क्यूंकि यह पिता का पितृ भाव हैं|  माँ परियों की कहानी सुनाते-सुनाते मुझे अपने साथ किसी अजीब-ओ-ग़रीब दुनिया में ले जाती थीं| जहाँ लोग ख़ुशहाल थे, जहाँ सब एक दूसरे को दुआ देते थे| शायद माँ ने यह दुनिया अपनी माँ के साथ भी घूमी होगी तभी हर चप्पा-चप्पा माँ जानती थीं| दूर से दुनिया की सारी माओं को देखने पर एक चीज़ सामान्य दिखती है कि समाज ने उन्हें अपने चंगुल में जकड़ रखा हैं| क़रीब से देखने पर उनके हाथ-पा

"मृत घर और आवारा मकान"

जिस तरह से मृत्यु नहीं टाली जा सकती उस तरह से एक उम्र के बाद घर को छोड़ना नहीं टाला जा सकता है| और तब हमें केवल घर का पता याद रह जाता है| जीवन में हर तरह की यात्रा घर से प्रारम्भ होती है लेकिन दुर्भाग्य से किसी भी यात्रा का अंत घर पर नहीं होता है| जीवन गतिशील होता है और इसके विपरीत होता है ठहराव से भरपूर घर| घर उद्गम है जिसके पास लौटना असंभव है| (असंभव में एक तरह का शांत दिलासा है|) लम्बे समय तक घर मेरी चारों दिशाओं में रहा फिर समय बीत गया, अब किसी दिशा में मुझे घर नहीं मिलता| घर अब मकान में तब्दील हो चुका है फिर भी मैं कभी-कभार उस मकान में घर की गंध सूँघने जाती हूँ लेकिन चौखट लाँघते ही मुझे स्थिर मकान में दौड़ता घर दिखने लगता है| वह दौड़ता घर मुझे कुचल कर मकान की चौखट लाँघ कर कहीं खो जाता है| मैं घर को पकड़ने नहीं दौड़ती क्यूंकि अब दौड़ने का साहस मेरे भीतर नहीं बचा है|  आँगन में लगी तुलसी अब सूख चुकी है पर मेरी घर की खोज अभी भी वैसी ही है जैसे तुलसी के अवशेष की अपनी जगह| पिता की चारपाई के पाए अब कमज़ोर हो चुके है जैसे वह अपने आख़िरी दिनों में हो गए थे| माँ की अलमारी में दीमक लग चुका ह

"शहरी पिशाच"

  शहर में घुसते ही एक अलग सा दबाव महसूस होता है मानो अगर नहीं दौड़े तो मारे जायेंगे और मरना किसी को नहीं पसंद है| हालाँकि बहुत सारे लोग मरे हुए हैं पर वे जीवित होने का ढोंग करते-करते लगातार मर रहे हैं|  (हर दिन बड़े शहर में छोटी-छोटी मौतें ख़ैरात में मिलती है|) फिर क्यों मौत का तांडव देखना है? क्यों शहर जाना है? शहर एक चुम्बक के भांति है जो जीवनकाल में एक बार अपनी ओर इस तरह आकर्षित करता है| उसके चुम्बकीय क्षेत्र से बाहर निकलना असंभव है और मनुष्य को असंभव काम करने में उत्साह मिलता है| लोग शहर को उम्मीद की तरह देखते है और मैं शहर को क़ब्रिस्तान की तरह| कितना द्वन्द से भरा है न मेरा नज़रिया; पर क्या करूँ?- शहर का ख़ालीपन, मौत के बाद की शान्ति से भी गहरा है| मुझे हर गहरी चीज़ में अपनी परछाई नज़र आती है| मुझे शहर का रंग नहीं चढ़ा हालाँकि गांव का रंग उतर चुका है| शहर ने गांव को मौत के घाट उतार दिया है| मैं अपनी कंक्रीट क़ब्र से उठकर जानदार सपनों के पीछे भागती हूँ और मेरे जैसे सैकड़ों निर्जीव लोगों को उन कंक्रीट सड़कों पर भागते हुए पाती हूँ जहाँ मैं कभी पगडंडियां पार कर पहुंची थी| (कितनी सजीव

'समय क्या है...?'

 कभी कोई सवाल इतना व्याकुल कर देता है कि मन दौड़ लगाने को हो आता है पर दौड़ कर सवाल से दूर तो जाया जा सकता है पर ख़ुद से दूर भागना असंभव है| कैलेंडर की अगली तारीख़ में प्रवेश करने के साथ ही अपने आप के सामने तो आना ही पड़ता है| कितना दार्शनिक है न यह सवाल कि समय क्या है? सुबह उठ कर रोज़-मर्रा के काम में लग जाना और फिर रात को सोते हुए आने वाले कल के काम की फ़ेहरिस्त को दिमाग़ में दोहरते हुए, नींद की आग़ोश में सो जाना|  समय साथ ही निकलता होगा सुबह में पर मैं अपने कामों में इतनी उलझी होती हूँ कि उससे बात करके उसको समझने की कोशिश नहीं कर पाती| एक रोज़ समय की सुई समय से तेज़ भागी तो मैं पीछे छूट गयी| हड़बड़ाहट में मैं जब घर से निकलते ही दौड़ने लगी मानो अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रही हूँ और इसी के चलते मैं अचानक समय से टकरा गयी लेकिन मैंने ख़ुदको संभाला और कलाई में बंधी घड़ी को देखा तो थोड़ी स्थिर हुई कि मैं तो समय से आगे निकल चुकी हूँ| एक बार फिर घड़ी की ओर देखा और मन की संतुष्टि के लिए पीछे मुड़ कर देखा तो समय कहीं नहीं दिख रहा था केवल धुंध दिखाई दे रही थी| बचपन से ही अपने आसपास के लोगों को