Skip to main content

"घर की गंध"



मकान में प्रवेश करते ही घर की गंध सूंघने लग जाती हूँ। हर कोना, हर वो चीज़ जो शक के दायरे में होती हैं  उसकी जाँच-पड़ताल हर दिन, नए सिरे से होती है। कंक्रीट के जंगल में मैं अपनी गुफा ढूंढती रहती हूँ। एक कप चाय के साथ बालकनी में खड़ी होकर, ऊँची इमारतों की ऊँचाई का अंदाज़ा लगाती हूँ या फिर कभी गुज़रती हुई गाड़ियों को तब तक देखती हूँ जब तक वे दिखना नहीं बंद हो जातीं। लोगों के हाव-भाव ज़ेहन में क़ैद कर लेती हूँ ताकि उनकी कहानियों में घूम सकूं। चलते हुए, चलने से ज़्यादा रुकी हुई चीज़ों पर ध्यान देती हूँ। अपने बारे में कम से कम बात कर, दूसरों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानने में इच्छुक रहती हूँ। घर जैसे लोगों की उनके घर हो जाने की काल्पनिक कहानियां गढ़ती हूँ। अकेले में जीवन के घटनाक्रम को समझती हूँ। कोई सालों पुरानी हरकत सोच कर देर तक मुस्कुराती हूँ। लेकिन इतनी व्यस्तता के बाद भी मैं लगातार घर तलाशती हूँ। 


मैं यह गुत्थी आजतक नहीं सुलझा पायी कि, 'क्यों घर स्मृति मात्र रह जाता है?'  घर बोलते हुए, सोचते हुए और याद करते हुए; क्यों एक आँगन दिमाग़ में छलांगे लगाने लगता है?  चूल्हे से निकलता धुंआ नीले गगन में विलीन होता क्यों दिखने लगता है?  पुराने अख़बारों से बने टीले घर के एक कोने में क्यों आराम करते हुए मिलते हैं? दालान में लोगों की आवा-जाही और उनके ठहाके क्यों गूंजने लगते हैं? गली से निकलते हुए, चबूतरों पर बैठे जाने-पहचाने लोगों की भाव-भंगिमा क्यों आँखों के सामने आ कर ठहर जाती हैं? शाम को शोर मचाती हुई बच्चों की टोली कहाँ से इतना उत्साह लेकर आती है?  फेरीवालों की आवाज़ इतनी संगीतमय क्यों होती है? 


मैं स्मृतियों के सहारे बार-बार घर लौटती तो हूँ लेकिन मकान के पंजे अपनी पकड़ ढीली नहीं छोड़ते हैं। लोग-बाग को अक्सर यह कहते हुए सुना कि लोगों से घर होता है। ऐसा नहीं है कि इस मकान में लोग नहीं है, लोग तो हैं, ज़रूरत का सामान भी है पर घर नहीं है। इसीलिए मकान में घर की तलाश जारी रहती है। शायद मेरी तरह ही पिता और माँ ने भी घर को ढूंढा होगा उस मकान में जिसमें मेरी स्मृति का घर पनपा था।   


हमारी कहानियों का विस्तार घरों से शुरू होकर मकानों में सिमटकर ख़त्म हो जाता हैं। हमारा विस्थापन केवल एक शहर से दूसरे शहर नहीं होता है; घर से मकान की ओर भी होता है। फिर एक दिन अचानक से मकान के एक कोने से घर की गंध आनी शुरू हो जाती है। 


~आमना 

Comments

  1. अब घर नही मकान बनते हैं, घरों की गंध अब नही मिलती, एयर फ्रेशनर ने उसकी जगह ले ली है। सबको अपना मकान ऊंचा करना है, कोई छोटा नही रहना चाहता। आपने जो वर्णन किया है वो गुजरे जमाने की बात हो गयी है अब गांव में भी शहर घुस आया है।

    ReplyDelete
  2. विस्थापन और पहचान के जटिल पहलुओं का सुंदर एवं मार्मिक विश्लेषण ।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

"अकेलेपन से एकांत की ओर"

एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोंका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिहरन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अत...

"पिता और काश"

  पिता से संवाद गिनती के रहे। डर का दायरा लम्बा-चौड़ा रहा। सवालों से पिता को ख़ूब परेशान किया। जब सवाल का जवाब ख़ुद ढूँढना शुरू किया तो पिता की रोक-टोक बीच में आने लगी। पिता भयानक लगने शुरू हो गए। पिता खटकने लगे।  पिता ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया और लड़खड़ाने पर थाम लिया। घर से बाहर की दुनिया की पहली झलक भी पिता ने दिखाई। मेले का सबसे बड़ा झूला भी झुलाया; खेत घुमाया, शहर घुमाया, रेल की यात्रा कराई। फिर दुनिया के कुएं में अकेले धकेल दिया। पिता उस गांव जैसे थे जहाँ से एक सपनों की पगडंडी शहर की सड़क से जा मिलती थी। मुझे भी वह पगडंडी भा गयी। अच्छे जीवन की महत्वाकांक्षा ने पहुँचा दिया, शहर। पिता से दूर, पिता के ऊल-जलूल उसूलों से दूर।  शहर की दुनिया, गांव में बसी पिता की दुनिया को दर-किनार करने लगी। समय बीता, और इतना बीत गया कि पिता पुराने जैसे नहीं रहे।  एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति का शरीर ढल गया। चाल में लड़खड़ाना जुड़ गया। आवाज़ धीमी हो गयी। दुनिया के सारे कोने की समझ रखने वाला व्यक्ति, अब एक कोने में सिमट गया। पिता इन दिनों बच्चे जैसे हो गए। अपने कामों के लिए दूस...

"पिता: नायक या खलनायक?"

  आँखों ने पिता के चेहरे से ज़्यादा उनके पांव की तस्वीर क़ैद की है।  कत्थई रंग की एक जोड़ी चप्पल, जिसकी उम्र पिता की उम्र के बराबर ही रही होगी, उसे सीढ़ी पर रखे हुए देखने में पिता के पांव की छाप साफ़ नज़र आती है। पिता झुक कर चलने लगे हैं, लेकिन सारी उम्र रीढ़ का महत्व बताते आए हैं। सीधे नहीं बैठने पर टोकते हैं और सीधे रास्ते पर चलने के लिए दाएं-बाएं चलते हुए बताते हैं। पहले फटकार देते थे। फिर भी हम ऊट-पटांग काम करने से पीछे नहीं हटते थे। पिता का रोकना-टोकना, जीवन जीने के आड़े आता रहा। हम भाई-बहनों ने अपने जीवन की फ़िल्म का खलनायक, पिता को अपनी छोटी-सी बैठकी में सार्वजनिक तरीके से घोषित कर दिया। हम सब ने संकल्प लिया कि करेंगे तो अपने मन का। पिता का ज़माना गुज़र गया, यह नया ज़माना है — हम जैसों का, जो हमारे सामने खड़ा है। पिता का अनुशासन तब तक ही है जब तक हम सब घर में हैं। घर से निकलते ही, हम पतंग बन जाएंगे। घर छूटा, पढ़ने निकले — पतंग तो क्या, कटी पतंग बन गए। फिर समझ आया, पतंग को आसमान में उड़ते रहने के लिए अनुभवी हाथों में उसकी डोर होनी चाहिए। जिस पिता को हम खलनायक मान बैठे थे...