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Showing posts from January, 2025

"निरंतर"

लेखन का रियाज़ रोमांच से भरा तब तक होता है जब तक लगातार आप कुछ न कुछ महसूस कर रहे हों, अपनी आसपास में घटती घटनाओं के चलते| लेकिन फिर किसी बड़ी घटना के घटते, आप छोटी-मोटी घटनाओं के लिए दरवाज़े बंद कर देते हैं फलस्वरूप आप का महसूस करना शून्य हो जाता है और लेखन भी उबाऊ लगने लगता है|   बीते महीने निरंतर लिखने के बाद, निरंतर लिखने की कोशिश अब तक जारी है पर अब काग़ज़ और कलम के बीच समन्वय नहीं बैठ पा रहा है| बड़ी घटना ने छोटी घटनाओं को लात मर दी है| कोई अपने अपमान का बदला लेने तक नहीं आ रहा है| दरवाज़ा खोलने पर भी कोई दस्तक देते नहीं दिख रहा| लेखन जहाँ से उपजता है वह ज़मीन बंजर मालूम पड़ती है| दरवाज़े को खोलने और बंद करने पर चर-चर की आवाज़ निरंतर आ रही है| जहाँ तक आँखें देख सकती हैं और कान सुन सकते हैं, वहाँ तक निरंतर मैं देख और सुन रही हूँ; लेकिन ऐसा कुछ नहीं, दिखाई और सुनाई दे रहा है जिसकी मदद से लेखन की बंजर ज़मीन को उपजाऊ किया जा सके| यह जो घट रहा है इसके बारे में, तब मैंने निरंतर सोचा था लेकिन अब निरंतर जी रही हूँ| चंद घंटों में, मैं जो कुछ लिख सकती हूँ शायद उसे बोलने में मेरा जीव...

"फिसलन"

दिन फिर से फिसलने शुरू हो गए है। आँखें पुराना कैलेंडर तलाश कर रहीं हैं। सूरज की किरणें पुराने एहसासत को तारो-ताज़ा कर रहीं हैं| सारे काश हाशिये पर खड़े दिख रहें हैं। नया हमारे सामने है लेकिन हम पुराना खोज रहे हैं| लगातार बेतरतीब सा महसूस हो रहा है| कोई तरकीब नहीं सूझ रही कि अपने बदन पर चिपके पुराने ख़यालों को कैसे झाड़ा जाये? इस पल में कैसे पुराने ख़ुद से छुटकारा पाया जाये? नए साल में कैसे ख़ुद को नए रंग-ढंग में ढाया जाये? पुरानी चीज़ों पर तो अक्सर दीमक लग जाती है| नए दीपक से कैसे उजाला किया जाये? माँ द्वारा सिखाई गयी प्रेम की परिभाषा के सहारे, मैंने कितना कुछ सरलता से जाना है| पिता ने वियोग से लड़ना नहीं सिखाया परन्तु वियोग में जीना बतलाया| माँ-पिता का पुराना होना, हर नए साल पर कितनी पुरानी यादों को टटोलता है| पिता का ऐनक पिता जितना पुराना है किन्तु उसमें कभी धूल नहीं जमी और न ही माँ की शाल से धागे निकले| पिता अब कम बाहर जाते हैं और माँ के जोड़ों में दर्द रहता है| दोनों घंटों चुपचाप धूप में बैठते हैं और अपने लगाए पौधों को निहारते हैं| एक दिन अचानक सब कुछ पुराना नज़र आने लगता है| नया, पुराने...

"अफ़साने"

  वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन  उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा ~साहिर लुधियानवी साहिर साहब के इस शेर से बड़े लम्बे अरसे तक मैंने इत्तिफ़ाक़ नहीं रखा पर अब सही लगने लगा है|  (कैसे समय के गुज़र जाने के बाद हम उन चीज़ों से इत्तिफ़ाक़ रखने लगते हैं जिनसे हमें शुरू में खीझ होती रही है|) कितने सारे अफ़साने हैं जिनका अंजाम तक पहुँचना नामुमकिन रहा लेकिन वो किसी ख़ूबसूरत मोड़ पर छूट भी नहीं सके। चीज़ों का छूटना और पकड़ना हमारे हाथों में कहाँ ही होता हैं। हम तो कठपुतली के समान, अपने आसपास के हालातों के निर्देशन पर अभिनय करते मिलते हैं। अभिनय कब मजबूरी से आदत में तब्दील हो जाता है इसका अंदाज़ा भी हम नहीं लगा पाते| जिधर पानी का बहाव रहता है उधर नदी बहती है और इसी तरह से, हम भी समय के बहाव में बहते हैं| जीवन की परिक्रमा करते हुए वो ख़ूबसूरत मोड़ भी देखने को मिल जाते हैं जहाँ अफ़साने शायद छूट सकते थे| हर अफ़साना अंजाम न सही लेकिन एक ख़ूबसूरत मोड़ का मोहताज तो होता ही है| हम आगे बढ़ते हुए कितने सारे लोगों को मायूस करते हैं और आपने आप को अचंभित| जब कभी किनारे पर रुक कर सम...

"आधे-अधूरे"

परदे से झाँकती हुई सूरज की किरण मुँह पर गिरी तो आँख अपने आप खुल गयी| बड़े दिनों बाद बिना किसी अलार्म से उठ कर आज़ाद सा महसूस हो रहा है| बिस्तर को समेटते हुए, मेज़ पर रखे हुए गिलास पर नज़र गयी कि उसमें अभी आधा पानी बाक़ी है|  (आधा न पूरे की श्रेणी में आता है न अधूरे की लेकिन आधा, आधी आशा और आधी निराशा पूरी देता है|) मोहन राकेश द्वारा लिखा गया नाटक, "आधे-अधूरे" याददाश्त की चौखट पर बैठा दिख रहा है| बचपन में कोई सवाल पूछता था कि क्या बनना है तो चंचल मन में हर दिन कोई नया-सा जवाब होता था फिर पूरे दिन बस वही बन कर घूमना रहता- नादानी और बेख़बरी से भरपूर दिन| लेकिन अब, पूरा दिन आधा कुछ बनने और कुछ नहीं बनने में निकाल देती हूँ| अंत में आधी-अधूरी ही बच पाती हूँ| हर एक सुबह एक आस जन्म लेती है कि आज कुछ पूरा सा होगा लेकिन शाम आते-आते यह आस दम तोड़ देती है| गला गिलास का पूरा पानी गटकना हर रात भूल जाता है| हर संवाद के बाद संवाद का मूल्यांकन करते हुए हमेशा कुछ पूरी बातें, अधूरी मिलती हैं| आधे-अधूरे के बिखराव से पूरी दुनिया भरी हुई है| अधूरी चीज़ों का ख़ूब क़यास लगाया जाता है| चीज़ें जो प...

"डर का स्पर्श"

  लिखते हुए हमेशा एक डर बना रहा है कि कहीं एक दिन अचानक सारे शब्द ख़त्म न हो जाये| कहीं सारी संवेदनाएँ लेखन न सोख ले| कोई स्याही को उड़ेल न दे| कहीं से कोई एक चुटकी न बजा दे जिससे सारे जादू का पर्दाफ़ाश हो जाये| कहीं कोरे कागज़ का ख़ज़ाना कोरा ही न रह जाये| आँखों के सामने वाली,पारदर्शी खिड़की कहीं धुंधला न जाये| एक वाक्य से दूसरे वाक्य की तरफ़ रुख़ करते हुए, एक लम्बी इंतज़ार की दरार, इंतज़ार करती मिलती है| इंतज़ार में होते हुए भी, इंतज़ार में न होने का अभिनय करना पड़ता है| अपने अतीत के लेखन से अनजान होकर, वर्तमान के लेखन की नींव रखनी पड़ती है| उस बड़े से डर का एक छोटा-सा हिस्सा यह भी है कि कहीं कोई लिखे गए शब्दों से, लिखे जा रहे शब्दों के बीच जानी-पहचानी रेखा न खींच दे|  डर धीमे-धीमे हमारी तरफ़ अपने पांव बढ़ाता है लेकिन हमें अचानक मालूम चलता है कि हम उसकी गिरफ़्त में आ चुके है| हम सन्न रह जाते हैं| हम छटपटाना चाहते हैं और छटपटाते भी हैं हूबहू मछली की तरह; अंत तक कामयाबी हाथ नहीं लगती लेकिन नाकाम कोशिशों की फ़ेहरिस्त में इज़ाफ़ा ज़रूर होता है।लिखते हुए अक्सर हाथ कांपत...

"हादसा"

मृत्यु से बड़ा हादसा क्या हो सकता है! मृत व्यक्ति लौट नहीं सकता और मृत व्यक्ति हमारी पुकारें नहीं सुन सकता| लेकिन अगर ज़िंदा व्यक्ति एक दिन अचानक ग़ायब हो जाये तो क्या यह बड़ा हादसा नहीं है? मृत व्यक्ति के साथ काश जुड़ जाता है और ग़ायब हुए ज़िंदा व्यक्ति के साथ क्यों के आकलन जुड़ जाते है| हम इस हादसे के उपरान्त प्रतीक्षा में बैठे-बैठे सबसे ज़्यादा विस्मित अपने धैर्य से होते हैं और निरंतर विस्मय में जीते हैं| हमें लगता है कि सब कुछ हमेशा वैसा ही रहता है जैसे शुरुआत में होता है| ऐसे हादसे हमें जीवन की अनिश्चितता याद दिलाते हैं| जीवन के क्षण ज्वार-भाटे की तरह होते हैं| हम किनारे पर खड़े होकर केवल इसके चश्मदीद गवाह बन सकते हैं| ग़ायब हुआ व्यक्ति अपने पीछे ग़ायब होने का सुराग़ भी नहीं छोड़ता हालाँकि वह अपनी छाप छोड़कर जाता है जिसमें वह गुज़रते समय के साथ फलता-फूलता है| हम घर की चौखट पर टिके हुए राह ताकते हैं| शाम होते ही, आसमान में पक्षियों का घर लौटना, हम ज़ेहन में अंकित करते हैं| कभी अस्पताल के गलियारे में मृत्यु का तांडव देखते है या फिर कभी शव के शमशान जाने के बाद का मौन सुनते है| स्...

"बहुत दूर"

कभी-कभी हम दूर निकल जाना चाहते हैं - बहुत दूर| जहाँ से लौटने की जल्दी न रहें| जहाँ घड़ी की टिक-टिक सुनाई न देती हो| ज़िंदा होना भ्रम न लगे| भागते हुए पांवों की आवाज़ धड़कने न दबा दें| किसी को कुचल कर कहीं न पहुँचना पड़े| एक समय पर दो चीज़ों के बीच में चुनाव न करना पड़े| किसी के रोकने पर हम रुक सकें| किसी को पुकारते समय, गला सूखने न लगे| प्रेम में रो सकें और वियोग में हँस सकें| घरों से निकले लेकिन घरों में रह जाएँ| उलझे हुए धागों को मिलकर सुलझा सकें| दुनिया घर जैसी लगे| 'वसुधैव कुटुंबकम' के नारें हर गली, मोहल्ले में आपस में बात करते, रंगे हाथों पकड़े जाएँ| हम सोचते हैं कि दूर निकलने पर हम कुछ चीज़ों के क़रीब पहुँच जायेंगे| क्षण भर के लिए हम खुश हो जाते हैं; लेकिन फिर हमारे अगर-मगर के संवाद शुरू होते हैं जिससे आमना-सामना करने से बेहतर है कि दूर निकल जाने के विचार को त्याग दिया जाए| हमें लगता है कि दूर निकल जाने से, हम बच निकलेंगे तात्कालिक मुठभेड़ से| हालाँकि हर दिन हम किसी न किसी जानी-पहचानी जगह से निकल कर, किसी अनजान जगह पहुँच रहें हैं; बहुत कुछ छूट रहा है लेकिन बहुत दूर जाने क...

"हमारा अपना शहर"

बीता साल काफ़ी किताबी रहा, पढ़ना ख़ूब हुआ और लिखना ठीक-ठाक रहा| बरगद जैसे लोगों की संगत मिली| एक कमरे में बंद रहते हुए भी, बहुत घूमना हुआ| इस साल ममता कालिया जी की 'जीते जी इलाहाबाद' से सिलसिला शुरू हो रहा है| शीर्षक पढ़ते हुए लगा कि अभी तक के मेरे लेखन में इलाहाबाद का ज़िक्र क्यों नहीं आया? लेकिन कुछ घटनायें संयोग के भरोसे बैठी होती हैं; वो जब घटित होती हैं तो जीवन थोड़ा और सहज व सुन्दर लगने लगता है|    लगभग सारे ही शहर जिनका अस्तित्व होता है, वो देश के मानचित्र पर रेखांकित होते हैं| उनमें से दो-चार शहर का चित्रण हमारे ज़ेहन में रह जाता है| हमारे अस्तित्व का बड़ा हिस्सा वो शहर भी होते हैं| उन शहरों का बखान करते हुए, "हमारा' शब्द अपने-आप जुड़ जाता है उन शहरों के नामों के आगे| वो शहर हमारे चाल-ढाल में घुले होते हैं| कर्मभूमि एक पता मात्र होती है| जन्मभूमि वह गली होती है जहाँ बचपन गुज़रता है| हमारे संवादों में वो शहर भी अपना संवाद दर्ज़ कराते हैं|  उन दो-चार शहरों में से एक शहर मेरे लिए, 'हमारा' इलाहाबाद रहा है| कहने को तो प्रयागराज हो गया है; राजनीति और रणनीति स...

"What If"

  There is low visibility outside. I am sure If I open the window to check the temperature, my body will get shivers. January has arrived, and so has the new year, but I am still writing 2024. How funny it is to become habitual of something, knowing that it is going to change. The life is going at the same pace. Somedays, I spend tackling troughs, and the other days, I convince myself about crests. However, every day goes on encountering what ifs.   Yesterday was full of ifs, and today, I have to sit with old and new ifs. Ironically, I am the one who is questioning and also framing answers. What has changed over the years is the intensities carried by ifs and buts. It sounds pessimistic, but actually, it brings commas to life instead of full stops after getting tired of wandering hither and thither. It makes me more aware of different possibilities and dimensions. As I am not able to travel much physically, I can go beyond countries and impossibilities through them. I am liste...

"Germinate Another Morning"

  Since last year, having a cup of green tea and staring at a blank screen, early in the morning has become a ritual. In the background, there is a chirping of birds and an ascending sound of mankind. Glimpses of nature before the rat race starts is meditating. The sun's rays peek through the window and fall on the keypad. This is the exact moment when I fall short of words. When the still morning transforms into a movable one, everyone stops daydreaming. It is an announcement to leave the home, to build the house. So, I too have to get back to work with the hope for the paragraph to germinate another morning.  In the evening like birds, I enter the home with an exhausted body carrying the minute raw materials for the house. The dormant walls come alive as my shadow steps in. The diary placed next to my bed smiles at me, and in response, my placid face sighs. As I freshen up, all the strangeness sheds away. I keenly look forward to early morning. Still, the night commands my m...

"The Ends Before An End"

As soon as any trip ends, I feel anxious rather than relieved. I capture as many frames as my phone can handle so that I can relive them. I do imagine the ends; despite this, they make me uneasy. The so-called end of the living is death, albeit it fascinates me. The loop of ends is an abyss. Sometimes, I think of my final ending while going through the small endings day to day. This does not affect my day but surely the nights. I love observing. I stare at the ceiling or through the window like the zoned-out kid in the class. I had never been the kid who looked out of the window while the class was going on. I do not remember the exact moment which sowed the seed of zoning out.  Death started fascinating after many instances. Initially, like everyone else, I was horrified and worried. When I read a short story, " The Last Leaf " by O. Henry, I could imagine myself there. I was in awe of this kinda convincing writing style.  There was a time when I watched, "Lootera"...

"There is a Sky"

Neither the constant life we had demanded nor the variable one we had expected. Unlike Robert Frost, we could not take, 'the road not taken.' Despite having a stable life, we face instabilities frequently. Days in cubicles and nights in coops, we are no longer the free birds. We used to be rebellious. Maybe then we were rebels without the cause, but now we have at least the reason however, we do not dare to be a rebel. How time flies that we forget the flying. We become habitual of being flightless. At times, we still do crave skies, but the land has clenched our bodies. Our souls have always been free, free from every uncertainty and certainty. Life has been cruel to souls, and it mutilates them because they are rebels with the cause.  There are moments of acting puerile, which observe the possibilities of remembering the flapping mechanism. Sometimes, revisiting the past of being in the sky suggests thinking about the unfamiliarity of the present. Being worried about the tatt...