क्या भागा जा सकता है अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य से ? या ये नहीं हो सकता कि केवल भागा जाये, न किसी से आगे, न किसी के पीछे। क्या पृथ्वी के दो ध्रुवों के बीच नहीं भागा जा सकता ? कैसे हमारा अतीत हमारे वर्तमान में भागने को तय करता है और वर्तमान, भविष्य में भागने को। मैं जिस तरह से दिन और रात के बीच में भाग रही हूँ केवल पूरब से उगता सूरज और पश्चिम में डूबता सूरज ही इसका साक्षी है। जब मैं नहीं भागती हूँ तो भागती हुई चीज़ें मुझे ठोकर मार कर भागना याद दिलाती हैं। मेरे जीवन में भागने का इतिहास मेरे जितना ही पुराना है। भागते रहने पर भागना प्रवृत्ति बन जाता है। एक समूचा आदम ज़ात भाग रहा है। भागता हुआ इंसान, हर दिन छोटी-छोटी मौत की घड़ी को पीछे छोड़ता हुआ, विशालकाय मौत में विलीन होने की ओर कदम बढ़ाता है। भागने को किसी एक दिशा में निर्धारित क्यों किया जाये ? हम तो दिशाओं और संभावनाओं से घिरे हुए लोग हैं। फिर क्यों आँख मूंदे, हम एक दिशा में भागते हैं | मुझे एक ही समय पर भागना उबाऊ और उत्साह से लबालब भरा लगता है। भागते हुए कभी ये अंदाज़ा नहीं होता है कि कौनसे गड्ढे में हम जा गिरेंगे ...