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"बासी लेखन"

  आजकल एक नए से डर के घेरे में रहना शुरू हुआ है| कई डर आये और कुछ दिन गुज़ार कर चले गए| शायद यह भी चला जाये कुछ दिन बाद, पर जितने दिनों से यह साथ में है जीवन दूभर है| पहली बार किसी डर ने लेखन के आसपास भटकने की हिम्मत की है| मुझे डर लगने लगा है कि कहीं मेरे लेखन से बास न आने लगे| अभी तक मेरा लेखन निडर रहा है| हाँ, पर मैं डरी-सहमी ज़रूर रहीं हूँ|  मैंने अपने लेखन के इर्द-गिर्द खुदको भी नहीं जाने दिया पर यह प्रेत नुमा डर मेरे लेखन के पास मंडरा रहा है| मुझे अँधेरे से डर लगता रहा लेकिन लिखते समय मुझे अँधेरा चाहिए होता है किन्तु अब लगता है कि मेरे पीछे कोई बैठा हुआ है जो निरंतर मेरी उँगलियों को कीपैड पर पड़ते देख रहा है| मैं निरंतर काँप रही हूँ कि वह मेरे ताज़े से लेखन को कहीं बासी न कर दे| मुझे हर बासी होती हुई चीज़ों से खीज महसूस होती है जैसे बिस्तर के किनारे पड़ी हुई किताबें, संदूक में पड़े एल्बम, मकानों में पड़ी घर की स्मृतियाँ, पड़ोसी के अमरूद के पेड़ से गिरे अमरूद, दालान में पड़ा अख़बारों का अम्बार, गमलों के पेंदे पर जमी काई और अब बासी होती हुई चीज़ों का और विस्तार हो रहा है| मुझे मेरे
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"किवाड़ पर उभरे गड्ढे"

  जब छुट्टियों में घर जाना होता तो अम्मा और किवाड़ दोनों इंतज़ार करते हुए मिलते थे| अम्मा की चमकती आँखें दिखती पर नीचे आये गड्ढे हर बार और गहरे हो जाते| पिछले कितने बरसों से वह घर में रहकर भी कभी पिता की राह तकती थी तो कभी हमारी| अम्मा ने सुख में भी इंतज़ार किया|  अम्मा की आख़िरी स्मृति किवाड़ के सहारे टिक कर खड़े हुए है| उनका आधा शरीर घर की ओर है और आधा शरीर बाहर जैसे वह आधी जीवित और आधी मृत हों| अम्मा अब जा चुकीं हैं, बहुत दूर; लेकिन हमें केवल घर की दूरी मालूम रही| अम्मा की मौत पर घर भी क़ब्रिस्तान तक गया था हालाँकि किवाड़ अपनी जगह जमा रहा और बिलखता रहा| कितना सब कुछ अम्मा अपने साथ ले गयीं और जो छूट गया, वो अपने पैरों पर चल कर ख़ुद चला गया| साल रेंग रहे हैं, महीने चल रहे हैं और घड़ी की सुई दौड़ रही है| घर अब पास लगने लगा है लेकिन वहाँ जाने की वजह, बहुत साल पहले; बहुत दूर चली गयी| अम्मा का पता घर था पर घर अम्मा से था| अम्मा के बाद हम घर पर बहुत लम्बा रुके, जहाँ रुके वह मकान हो चुका था| हमने सिंधु घाटी सभ्यता को खंडहर होते हुए नहीं देखा केवल उसके बारे में सुना था पर हमने घर को मकान के

"शोषित पाँव"

  एक वक़्त बाद बहुत ज़रूरी हो जाता है लौटना| जहाँ से पाँव ने भागना शुरू किया था शायद वहाँ लौटना असंभव होता है इसीलिए उस तरफ़ लौटने का विचार भी नहीं आता| लेकिन कभी-कभी कहीं बस लौट जाने को मन उतावला हो जाता है, जहाँ पाँव पर आये छालों को देखा जा सके, उन्हें खुले में छोड़ा जा सके और हाँफते हुए शरीर को फिर से हाँफने के लिए तैयार किया जा सके| बचपन में घर के बड़ों ने माँ और पिता को बतला दिया था कि इसके पाँव किसी एक जगह नहीं टिकेंगे| वाक़ई, पाँव हवा में ही रहें| कभी पाँव किसी शहर में लगभग टिकने को होते तो दूसरे शहर से बुलावा आ जाता| पलायन से भरपूर जीवन दूर से देखने में सुन्दर लगता है हालाँकि पास से देखने में एकदम फीका होता है| एक शहर की सुगंध लिए दूसरे शहर भागती नाक, अपनी पसंदीदा गंध भूल जाती है|  किसी एक शहर को अपना शहर बोलने में ज़बान लड़खड़ाने लगती है| किसी एक शहर में इतना रहना नहीं हुआ कि उस शहर के आग़ोश में चैन से नींद आयी हो| मुझे हमेशा लगता रहा कि भागते रहना, हमें जीवन की मुश्किलों से निज़ात दिलाता है क्यूँकि भागते हुए इंसान का ध्यान सिर्फ़ भागने पर रहता है| (ख़ानाबदोश जीवन एक इंसान में

"दौड़ता शहर"

  मैं पागलों की तरह सड़क के बीचों-बीच दौड़ रही हूँ जबकि दौड़ने से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा| (अक्सर हम वे सपनें देखते हुए खुदको पाते हैं जिनका कोई सर-पैर नहीं होता|) सहसा मेरी नींद टूटी|   (शहर में नींद खुलती नहीं, टूटती है|) मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-ब-तर पड़ा है| मैं बिना सोचे बालकनी की तरफ दौड़ी कि शायद बाहर की ठंडी हवा लगने से कुछ जान में जान आ सकें|  भीतर जो कुछ दौड़ रहा था वो अब बाहर भी दिखाई दे रहा है| दौड़ता, हांफता हुआ|  कृत्रिम रोशनियों ने सारे शहर को उजाले में छुपा दिया है| सड़कों पर चंद गाड़ियाँ अभी भी दौड़ रही है| शहर का एक छोर कहीं अनंत में लटका हुआ है और दूसरा छोर कहीं शून्य में पड़ा हुआ है| मैं शून्य से अनंत तक पलक झपकते दौड़ गयी मानो मेरी कोई पसंद की चीज़ शून्य से अनंत में जा के छुप गयी हो| शहर हमेशा से मेरे गले में फँसी हड्डी के समान रहा है| इस हड्डी की बनावट में सपने और ज़रूरतों के खनिजों का उपयोग हुआ है| मुझे शहर से कभी घृणा नहीं रहीं और न ही कभी प्रेम रहा| (जीवन में कभी कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिसमें न घृणा होती है न प्रेम|) जब पहली बार पगडंडियों से होक

"अम्मा का बच्चा होना"

माँ को अपनी माँ के बारे में बात करते हुए मुझे माँ में उनकी माँ की बेटी दिखती थीं, चंचल, नादान बच्ची| शायद वह भूल जाती थीं अपना माँ होना| उन्हें दिखने लगता था झूला जिसको झूलते समय उन्हें चोट लगती थी और वह दौड़ती हुई माँ के पास पहुँचते ही लिपट जाती थी| मैं अम्मा से लिपट कर उन्हें उनका माँ होना याद दिलाती थी| (बच्चे रहते हुए हम अपने माँ-बाप का कभी बच्चा होना सोच नहीं पाते हैं|) माँ का होना सुकून हैं| माँ के न होने पर पिता के भीतर की माँ बाहर आती हैं जिसे पितृसत्ता के विचारों ने नहीं पाला-पोसा होता हैं| कोमलता और ममत्व से ओतप्रोत पिता, माँ हो सकता हैं पर वह माँ की जगह हमेशा रिक्त छोड़ देता हैं क्यूंकि यह पिता का पितृ भाव हैं|  माँ परियों की कहानी सुनाते-सुनाते मुझे अपने साथ किसी अजीब-ओ-ग़रीब दुनिया में ले जाती थीं| जहाँ लोग ख़ुशहाल थे, जहाँ सब एक दूसरे को दुआ देते थे| शायद माँ ने यह दुनिया अपनी माँ के साथ भी घूमी होगी तभी हर चप्पा-चप्पा माँ जानती थीं| दूर से दुनिया की सारी माओं को देखने पर एक चीज़ सामान्य दिखती है कि समाज ने उन्हें अपने चंगुल में जकड़ रखा हैं| क़रीब से देखने पर उनके हाथ-पा

"मृत घर और आवारा मकान"

जिस तरह से मृत्यु नहीं टाली जा सकती उस तरह से एक उम्र के बाद घर को छोड़ना नहीं टाला जा सकता है| और तब हमें केवल घर का पता याद रह जाता है| जीवन में हर तरह की यात्रा घर से प्रारम्भ होती है लेकिन दुर्भाग्य से किसी भी यात्रा का अंत घर पर नहीं होता है| जीवन गतिशील होता है और इसके विपरीत होता है ठहराव से भरपूर घर| घर उद्गम है जिसके पास लौटना असंभव है| (असंभव में एक तरह का शांत दिलासा है|) लम्बे समय तक घर मेरी चारों दिशाओं में रहा फिर समय बीत गया, अब किसी दिशा में मुझे घर नहीं मिलता| घर अब मकान में तब्दील हो चुका है फिर भी मैं कभी-कभार उस मकान में घर की गंध सूँघने जाती हूँ लेकिन चौखट लाँघते ही मुझे स्थिर मकान में दौड़ता घर दिखने लगता है| वह दौड़ता घर मुझे कुचल कर मकान की चौखट लाँघ कर कहीं खो जाता है| मैं घर को पकड़ने नहीं दौड़ती क्यूंकि अब दौड़ने का साहस मेरे भीतर नहीं बचा है|  आँगन में लगी तुलसी अब सूख चुकी है पर मेरी घर की खोज अभी भी वैसी ही है जैसे तुलसी के अवशेष की अपनी जगह| पिता की चारपाई के पाए अब कमज़ोर हो चुके है जैसे वह अपने आख़िरी दिनों में हो गए थे| माँ की अलमारी में दीमक लग चुका ह

"शहरी पिशाच"

  शहर में घुसते ही एक अलग सा दबाव महसूस होता है मानो अगर नहीं दौड़े तो मारे जायेंगे और मरना किसी को नहीं पसंद है| हालाँकि बहुत सारे लोग मरे हुए हैं पर वे जीवित होने का ढोंग करते-करते लगातार मर रहे हैं|  (हर दिन बड़े शहर में छोटी-छोटी मौतें ख़ैरात में मिलती है|) फिर क्यों मौत का तांडव देखना है? क्यों शहर जाना है? शहर एक चुम्बक के भांति है जो जीवनकाल में एक बार अपनी ओर इस तरह आकर्षित करता है| उसके चुम्बकीय क्षेत्र से बाहर निकलना असंभव है और मनुष्य को असंभव काम करने में उत्साह मिलता है| लोग शहर को उम्मीद की तरह देखते है और मैं शहर को क़ब्रिस्तान की तरह| कितना द्वन्द से भरा है न मेरा नज़रिया; पर क्या करूँ?- शहर का ख़ालीपन, मौत के बाद की शान्ति से भी गहरा है| मुझे हर गहरी चीज़ में अपनी परछाई नज़र आती है| मुझे शहर का रंग नहीं चढ़ा हालाँकि गांव का रंग उतर चुका है| शहर ने गांव को मौत के घाट उतार दिया है| मैं अपनी कंक्रीट क़ब्र से उठकर जानदार सपनों के पीछे भागती हूँ और मेरे जैसे सैकड़ों निर्जीव लोगों को उन कंक्रीट सड़कों पर भागते हुए पाती हूँ जहाँ मैं कभी पगडंडियां पार कर पहुंची थी| (कितनी सजीव