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"मैं"

मेरी नसीहतों में साफ़ ज़ाहिर होता है कि मैं कितना ज़ोर आनेवाले कल को बेहतर बनाने के लिए देती हूँ पर जब ख़ुद   को समझाना होता है तो अपने आप को द्वन्द के घेरे में   मिलती हूँ | मैं कितनी आश्वस्त थी बहुत पहले पर मैं आज इस बात को मान नहीं सकती | ऐसा क्या हुआ जो मैं ख़ुद   को लेकर कुछ भी बोलने में कतराने लगी | मेरे साथ क्या घटा जो मैं ऐसी हो गयी | ( करीबन रात के 3 बज रहे है और मैं बालकनी में बैठी इतनी तेज़ बोल रही हूँ कि मुझे ख़ुद  भी नहीं पता मैं क्या-क्या बोल रही हूँ |) मैं न हारा , न जीता महसूस कर रही हूँ असल में मैं कुछ भी महसूस नहीं कर रही हूँ | कैसे मैं कुछ भी महसूस नहीं कर रही और कुछ क्यों महसूस नहीं हो रहा है ? क्या मैं इस पल ज़िंदा भी हूँ या ज़िंदा लाश बन गयी हूँ ? मेरा होना क्या कोई झूठ है या यही सच है कि मैंने इस झूठ को अपना सच बहुत पहले मान लिया था ? मैं तो शायद कभी सवालों के उत्तर ढूंढने के लिए बेचैन रहती थी पर आज म
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