हर शोर-शराबे के बाद, दबे पाँव काट खाने दौड़ता हुआ सन्नाटा आता है। उत्सवों में चमक-दमक होती है, लोगों का साथ होता है, लेकिन उसके बाद रह जाता है — अकेलापन, जो दूर-दूर तक पसरा होता है। बेमन ही सही, लेकिन हम बार-बार उसी सन्नाटे की ओर लौटते हैं। मन जानता है कि संगत क्षणिक है और अकेलापन शाश्वत। अकेलेपन में यादों का रेला है, विचारों की भिड़ंत है और अंतहीन इंतज़ार है। बहुत सारे डर भी हैं, जिनसे आज नहीं तो कल आमना-सामना होना तय है। इस सबके बावजूद, आदमी अकेलेपन में कराहता नहीं है, मन ही मन मुस्कुराता है। दिन भर में इकट्ठा की गई ध्वनियों को गीत में बुनकर गुनगुनाता है। दिन भर हम अकेलेपन से भागते फिरते हैं — व्यस्तता का हाथ थामते हैं, नई-नई योजनाएँ बनाते हैं, पुरानी योजनाओं को तोड़ते-मरोड़ते हैं — और शाम होते-होते बस लौटने का मन करता है। कहाँ? शायद 'घर'। लेकिन एक बार घर से निकलने पर, वहाँ जाया तो जा सकता है, लौटा नहीं जा सकता। त्योहार मनाने से ज़्यादा, वे घर जाने के बहाने होते हैं — थोड़ी देर के लिए पाँवों की गति को विश्राम देने के लिए, जीवन की गंभीरता को कुछ समय के लिए ताबूत में बंद करन...
बहुत कुछ लिखने का मन है। अभी बहुत कुछ पढ़ना बाक़ी है, और उससे भी ज़्यादा — बहुत कुछ देखना है, बहुत कुछ सीखना है, और बहुत जीना है। जितना जिया है, उसमें भी बहुत अधिक जीने की संभावना थी, लेकिन अभी जीवन बहुत बचा है — इस मोह ने हमेशा बहुत जीने से रोका है। पिछले तीन सालों से ऐसा लग रहा है जैसे जीवन एक जगह ठहर गया हो, जम गया हो। इन तीन सालों के विवरण में एक तरह की रिक्तता है, और साथ ही एक ही स्थान पर पड़े‑पड़े सड़ने की गंध है। एक कमरा है, जिसमें दुनिया और उसकी स्मृतियों का बिखराव है। कुछ खिड़कियाँ पारदर्शी हैं — जिनके ज़रिए आँखों ने अब तक बाहर की दुनिया से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा। चार दीवारें हैं, जिनपर ताज़े सुराग़ है — स्वयं को चाक करके ख़ाक कर देने के। लेकिन शरीर शव नहीं बना; जीने की इच्छा और भी तीव्र हो गई है। एक दरवाज़ा है, जिसके खुलने से भय और बंद होने से संतोष का अनुभव होता है। ज़मीन का एक टुकड़ा है, जिसमें दफ़न हैं त्रासदियाँ। एक बिस्तर है, जिस पर लोटती हैं अभिलाषाएँ। जब सूर्य की किरणें अंगड़ाई लेते हुए कमरे में प्रवेश करती हैं, तो जैसे हर अधमरी चीज़ में जान आ जा...