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"अकेलेपन से एकांत की ओर"

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एक वक़्त बाद अकेलापन इतना अकेला महसूस होने लगता है मानो वहाँ हमारा होना भी एक भ्रम जैसा हो| ख़ुद से बात करने के लिए कुछ नहीं बचता| कुछ नया करने से पहले ही मन ऊब जाता है| अकेलापन चुभना शुरू कर देता है| हम खोजने लगते है एक ऐसी जगह जहाँ से सब कुछ इतना भरा हो कि हमें अकेलापन का पता ही न चले| अंततः हम व्यस्तता का हाथ थाम लेते है| (अकेलापन तब खलने लगता है जब हम अकेले होने का मूल्यांकन करना शुरू कर देते है|) फ़िलहाल मैं छत के एक कोने में बैठकर अपने आसपास की दुनिया को देख रहीं हूँ| कितनी अस्थिर है दुनिया| लगातार भाग रही है भीड़ से अकेलेपन की ओर और अकेलेपन से भीड़ की तरफ़| कुछ को कहीं-न-कहीं पहुँचने की जल्दी है और कुछ को कहीं लौटने में अभी देरी है| हालाँकि मुझे इस पल में ठहरे रहने का सुख, दूसरों के दुःखों को महसूस करके नहीं गवाना है|  आज पहाड़ काफ़ी साफ़ दिख रहे है| पंछी आसमान में लम्बी और ऊँची उड़ान भर रहे हैं| कितना सुख मिलता है प्रकृति के आश्चर्य से बार-बार आश्चर्यचकित होने में| एक ठंडी हवा का झोका जैसे ही बदन छूता है वैसे ही एक सिरहन भीतर दौड़ लगाने लग जाती है| मैं भूल गयी थी कि अतीत के पन्न

"त्रासदी से संवाद"

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जीवन के बीतते दिनों को किसी एक खांचें में रखने में ख़ुदको को हमेशा असमर्थ पाती हूँ । अच्छे तरीके से न सुख जीया हैं न बुरे तरीके से दुःख से दो-दो हाथ कर पायी। दोष देने के लिए बहुत सी चीज़ें है जैसे समय, किस्मत, लोग हालाँकि सबसे बड़ी दोषी मैं ही रही हूँ। समय पर, बीते समय की बेड़ियों में जकड़ी और आने वाले समय की चिंता में एक कोने से दूसरे कोने भागती हुई । मैं समय की त्रासदी में अपनी हिस्सेदारी देती हुई, बीता रही हूँ जीवन, एक त्रासदी से दूसरी त्रासदी के बीच।  (त्रासदियों में सबसे बड़ी त्रासदी और सबसे छोटी त्रासदी का मूल्यांकन करना भी एक त्रासदी है।) प्रेम कच्ची उम्र में हुआ जिसने पक्के घाव दिए| यह शायद सबसे बड़ी त्रासदी होते-होते रह गयी हालाँकि प्रेम का न रहना एक त्रासदी है पर प्रेम तो अजर-अमर होता है| हो सकता है विरह को त्रासदी कहा गया होगा| वैसे मैंने प्रेम में रहते हुए भी विरह महसूस किया है और विरह में रहते हुए,प्रेम| तो हो सकता है जो चीज़ हमारे आसपास घट रही है और जो भी हमारे भीतर सब किसी न किसी त्रासदी की ओर दर्शाती है| (प्रेम नहीं होना एक त्रासदी है और प्रेम होना भी एक त्रासदी है|) (ह

तुम लौट आओगे, शायद!

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  रेलवे स्टेशन, बस अड्डा, एयरपोर्ट वग़ैरा रहा होगा चश्मदीद गवाह, बिछड़ने की घड़ी का, हालाँकि वास्तव में अलग होने से पहले, कई दिन तक दो लोगों ने लगातार महसूस किया होगा, बिछड़ना| विरह, वियोग, हिज्र की तीव्रता को अपने-अपने हिसाब से भोगा होगा जैसे मैं आजतक भोग रही हूँ|  तुम्हारा जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी पर मेरे जीवन की वह घटना थी जिसको मैंने कभी नहीं सोचा था| (कुछ घटनायें यथार्थ के एकदम क़रीब होती है पर हम उसे अपनी कल्पना में भी अपने आसपास नहीं भटकने देते है|) नियति ने तय किया होगा तुम्हारा जाना लेकिन मैं नियति में विश्वास नहीं रखती थी| मुझे लगता था चीज़ें हमारे अनुसार होती है हमारे भले के लिए| पर तुम्हारे जाने में मेरा क्या भला रहा होगा? आज तुम्हें गए हुए सालों हो चुकें हैं पर तुम्हारी जाने की स्मृति इतनी ताज़ी हैं कि लगता है कल ही इस स्मृति ने जन्म लिया था| (समय के साथ हम बूढ़े हो जाते है लेकिन कुछ स्मृतियाँ समय के साथ और जवान हो जाती है|) तुम्हारे जाने के अतीत ने मेरे वर्तमान का आज भी हाथ पकड़ रखा है जैसे हम दोनों ने उस दिन एक दूसरे का हाथ पकड़ा था, विदा लेने से ठीक पहले तक| वह दिन हमारे कुछ

"युद्ध"

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  कितना एकांत होता है किसी परीक्षा की तैयारी करना| एक 4 by 4 के कमरे में किताबों का ढेर और चारों ओर बिखरे हुए सपने और कहीं बीच में जूझते हुए हम| दुनिया का कहीं बहुत पीछे हाथ छूट जाता है और बस कमरे तक सिमट जाती है दुनिया| तैयारी का शुरुवाती दौर दुनिया को बदलने का साहस रखता है और अंत तक आते-आते बस जो कुछ भी बदल पाता है तो सिर्फ़ हममें| पता नहीं कितनी बार धैर्य का पुल गिरने वाला होता है पर दृंढ़ निश्चय बचा लेता है| कितनी बार लगता है कि क्यों देना ख़ुद को इतना कष्ट तब याद आती है सोहनलाल द्विवेदी जी की कविता की पंक्तियाँ~ “कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती” बहुत मुश्किल होता है अपने आप को बांधे रखना| हर दूसरे दिन कहीं भाग जाने का मन करता है और हर दिन अपना मन मार के कुर्सी पे बैठ कर पढ़ना चुनना होता है| हमारे इसी तरह का छोटे-छोटे चुनाव, हमें हमारे गंतव्य के ओर पहुँचा देते है| कन्धा नहीं होता न कोई साथ देता है| तानों और तनाव से भरा होता है यह युद्ध और हर हाल में हमें यह युद्ध लड़ना होता है स्वयं के लिए| बड़े-बड़े युद्ध अक़्सर शांत  कमरों में अकेले लड़े जाते है| ~अज्

"Aligarh:The City Of Belonging"

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I remember with shivering hands and legs, landed in the city and hugged me like a stranger turned out to be a childhood friend. It was July 7, 2019; and I walked down the Aligarh Junction. The very first time I had officially left home behind. Dreams can make us leave the most loved thing in our lives. The campus of Aligarh Muslim University feels like heaven and so is life here. Being an introvert, I was having conversations with the corners of campus and letting them know the feelings I was having since I was away from home. After days, it felt like a home. I came across kind-hearted people who had stories to tell about cultures and their highs and lows. The place which witnessed the transformation of a caterpillar into a butterfly. Hostel life taught us how to be together and how to be independent. On April 10, 2023; my official journey on campus ended and so did my school life. I was night and morning apart as on this morning I was about to board the train which is the same train t

“कमरा”

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  वही छत, वही चार दीवारें, वही फ़र्श, वही किताबें, वही शांत से फ्रेम, वही खिड़कियां, वही दरवाज़ा, इन सब की आदी हो गयी हूँ पर जब लगता है कि मैं अब ऊबने लगी हूँ तो मैं कमरे की सफाई करने लग जाती हूँ| धूल की परत झाड़ते हुए मानो झड़ने लगता है ऊबना और सब कुछ अपरिचित सा मालूम पड़ता है| घर का यह कमरा मेरे हिस्से तब आया जब मुझे लगने लगा कि मेरा ख़ुदका एक कमरा होना चाहिए| कमरा मिला,कमरे को ख़ूब सजाया, अनगिनत सपने देखें और कमरे ने मुझे हँसता, रोता, खोता, टूटता देखा|  मैंने जब-जब खिड़की से झांकते हुए चाँद देखा,तब-तब मैंने कमरे में अपने भीतर की ख़ामोशी को घुलते पाया| यह कमरा ज़मीन का केवल एक मात्र टुकड़ा नहीं है इसका हर हिस्सा मानो किताब का पन्ना है जिसमें लिखा है मेरा अतीत और लिखा जा रहा है मेरा वर्तमान|  मैं जब भविष्य के बारे में सोचती हूँ तो विस्थापन का विचार मुझे अंदर तक झकझोर देता है| जीवन के दुःखों को साँझा करा था इस कमरे ने, इस कमरे का वियोग कौन साँझा करेगा?  किसी नए शहर में, किसी मकान में. नया-सा कमरा रहेगा जिसमें ज़रूर विस्थापन के अवशेष होंगे हालाँकि मेरी स्मृति में मेरा वह कमरा, मेरे पहले प्रेम जैसा र

“PAIN IS JOYFUL”

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The toe finger hurt by the edge, the fingers tucked in the middle of the door, the bruises over the knees, touching a hot utensil, the best friend became the best friend of someone else, not accompanied by parents to the market and not getting the toys might be the incidents which gave the very first sense of pain.  When we were children, we cried, we screamed to express the pain but as we age, pain is accompanied by silence. Nothing and no one is familiar about the ocean of pain we are drowning in. The people whom we loved, went away, and the fathomless pain they left behind. The absence feels lifeless. The goals we could not achieve became the nightmares. It keeps intimidating us for the rest of life, The living body has to go through different forms of pain throughout its life but it is not only one emotion over which we lose life. Initial classes taught us that pain is an uncountable noun because if we could measure it, the world would be facing, a new form of competition. How easy