जिन जगहों पर आप दोबारा नहीं जा सकते, उन्हीं जगहों पर बार-बार जाने को दिल करता है। काया पिंजरा है, लेकिन दिल आज़ाद परिंदा—ख़ुश-फ़हमी के झूठे दिलासों से भी ख़ुश हो जाता है। कभी-कभी मन सब कुछ त्याग देने का करता है। मन की चाह अक्सर मन के ही आड़े आ जाती है। मन बहुत कुछ नहीं माँगता, लेकिन जो माँगता है, वह संभावनाओं की मिट्टी से नहीं, ‘काश’ के मलबे से बना होता है। इधर सर्दियों का ऐलान होता है, उधर दुबका मन इधर-उधर भागने को तैयार मिलता है। ज़ेहन अपने सारे बंद दरवाज़े खोल देता है। स्मृतियों की आवाजाही का ढिंढोरा पिटने लगता है। गड़े मुर्दे कब्र से निकलकर कोहरे में चलने लगते हैं। काया अपनी खोजबीन से ऊबकर बस दर्शक बन जाती है—एक पल भावुक और दूसरे ही पल कुपित। मुझे सर्दियाँ अच्छी लगती हैं—यह मुझे पिछली सर्दियों में पता चला। दिन छोटे और रातें लंबी; दृष्टि पर लगाम और विचारों का लगातार हिनहिनाना। सर्दियों में कान उन हल्की आवाज़ों को भी सुनने लगते हैं जो भारी आवाज़ों के दाब के चलते कानों तक पहुँचने में असमर्थ रहती हैं। मेरी काँपती काया, बीती कई सर्दियों की गर्माहट के सहारे इन सर्दियों के बीतने का ...
कभी-कभी मैं एक विचार को एक कमरे के मानिंद पाती हूँ। उसे उसके हर कोने से देखती हूँ। हर कोने के अपने विचार होते हैं। एक विचार को संख्या में एक तो गिना जाता है, लेकिन वह असल में विचारों का एक जत्था होता है। हर परत की अपनी आक्रामकता होती है। एक विचार से दूसरे विचार तक लंबी छलांग — और बीच में खाई में गिरने का भय। यथार्थ की घटनाओं से उपजे काल्पनिक विचार, विचारों का अपना लघु नाटक, और हम हाथ पर हाथ धरे दर्शक। बीते दिनों एक विचार ने कई दिनों तक कमरे में गुप्त बैठक की। उस विचार का उत्प्रेरक एक फ़िल्म का अंत था। किसी को बड़े अरसे से लगातार उत्साह से वह फ़िल्म देखने के लिए कहती रही। (आप जिनसे प्यार करते हैं, उन्हें वह सब कुछ दिखाना चाहते हैं जो आपको सुंदर लगता है — या फिर वह सब कुछ, जिसे शब्दों में परोसना असंभव होता है।) आख़िरकार फ़िल्म देख ली गई। फ़िल्म ठीक लगी — अंत कुछ समझ में नहीं आया। सुई केवल अंत पर अटकी रही। सुनते ही मन ही मन सोचा कि सबको सब कृतियों का शऊर कहाँ हासिल होता है। लेकिन तुरंत ही पांव को ज़मीन की ओर खींचा | बस फिर क्या — उनके व्यक्तिगत विचार को सर आ...