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"घर की यात्रा"

एक लम्बी यात्रा के दौरान अलग-अलग शहरों में अलग-अलग बिस्तर पर रात गुज़ारने के बाद, शरीर को घर के बिस्तर की याद अपने आप आने लगती है| खिड़की से ऊनी पहाड़ साफ़ नज़र आ रहा है| बिस्तर पर कल रात का थका शरीर अब ऊर्जा से भर चुका है| यात्रा में होते हुए, पुरानी यात्रायें मेरे कुर्ते का एक छोर ज़ोर-ज़ोर से खींच रही हैं| मैं न चाहते हुए भी वर्तमान की यात्रा से अतीत की यात्राओं की यात्रा करने लग जाती हूँ| कितना कुछ है जिस पर मैंने अपना नियंत्रण बीते सालों में खो दिया है| बीते सालों की घटनाओं की खाई में गिरने से मुझे इन यात्राओं ने ही बचाया| सूरज की किरणों ने सुबह होने का अहसास लगातार कराया लेकिन उम्मीद की किरण ने आँखें थोड़ी देर से खुलवायी तब तक तो मैंने ना-उम्मीदी में भटकना भी शुरू कर दिया था| बहुत पहले किसी यात्रा का नाम सुन कर जी मतलाने लगता था अब बार-बार यात्राओं का साथ ले कर जी ठीक करती हूँ| समय के साथ कितनी सारी चीज़ों को लेकर मेरा विचार बदला, मैं बदली लेकिन घर को लेकर मेरा जुड़ाव और गहरा हुआ| गहराई का अंदाज़ा मुझे तब हुआ जब घर नहीं बचा| दीवारों से रिसता हुआ ख़ालीपन रह गया, घर गुज़र गया| सामा
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"झुर्रियों से झाँकती कहानी"

 सड़क पार करते मेरा हाथ अपने आप ही अम्मा का हाथ थाम लेता था मानो अम्मा के हाथ में अपना हाथ देते हुए डरावनी सड़क कम डरावनी लगने लगती| मेले जाते तो आँखें रंग-बिरंगी चीज़ों पर अटकती लेकिन सारा होश-ओ-हवास अम्मा का हाथ थामे रहने में रहता कि कहीं भीड़ में गुम न हो जाये|  ( किसी के हाथ में अपना कोमल हाथ देते हुए लगता है कि दुनिया की कठोरता कुछ क्षणों के लिए निलंबित हो गयी है|)   मुझे नहीं मालूम हाथ थामने का इतिहास कितना पुराना है पर मेरे जीवन में हाथ थामना बहुत पुराना है| अनगिनत दफ़ा मैंने अम्मा का हाथ थामा है| फिर बड़े होने के बाद शायद हाथ की उँगलियों पर गिन सकती हूँ कि कितने दफ़ा अम्मा का हाथ थामा है| ( बड़े होने के साथ हमारे भीतर की झिझक भी बड़ी होने लगती है|) छोटे होते हुए मैंने अम्मा के हाथ का स्पर्श लगातार महसूस किया| अब बड़े होने के बाद उन स्पर्शों की स्मृति ही मेरे साथ है| मैंने हाथ थामते हुए अम्मा का हाथ कभी नहीं देखा लेकिन अब अक्सर मैं दूर से अम्मा के हाथ का मुआइना करती हूँ| झुर्रियाँ और उभरी नसों से सने हुए फटे हाथों के बावजूद अब भी वह लगातार काम करती हैं| वह इतनी बूढ़ी नहीं हैं जि

"कीलों का अतीत उसपे टंगा वर्तमान"

  सूरज डूबने के साथ, थकान का चिन्ह लेकर, मकान की तरफ़ लौटते ही दीवार में जड़ी कील पर चाभी के साथ, दिनभर का थका मुखौटा टांगना उचित लगता है। मकान में बिना किसी मुखौटे के घूमना झूठा है क्यूंकि मकान की नींव ही मुखौटों के ईंटों से रखी गयी हैं| गाँव के घर की दीवारों पर कई कीलें जड़ी हुई थी| पिता किसी पर थैला टांगते तो किसी पर चाभी या कपड़े लेकिन अम्मा को केवल कैलेंडर टांगना अच्छा लगता था| तारीख़ का हिसाब मिलता रहता और महीने का हिसाब-किताब भी लिख लेती| हमें तो केवल लाल रंग से लिखी तारीख़ ख़ूब भाती थी| छुट्टियों का इंतज़ार बड़ी धूम-धाम से करते थे| शहर की ओर जब शरीर बढ़ाया और कंधे पर लदे सामान में सपने और आत्मा को ज़बरदस्ती लादा तब लगा कि घर छोड़ना वास्तविकता में मज़बूत लोगों की निशानी है| हालाँकि मैं तो कमज़ोर थी लेकिन जब घर छूटा, काया और आत्मा दोनों चट्टान की तरह मज़बूत हो गयी| (शहर के शुरुआती दौर में, शहर आपकी रीढ़ की हड्डी पर वार करता है| आपको इतना मज़बूत होना पड़ता है कि उसका वार आपको वार न लगाकर, पीठ थपथपाना लगे| ऐसे वारों में टिक कर खड़े रह जाने के बाद शहर वास्तव में, पीठ थपथपाना शुरू कर

"बासी लेखन"

  आजकल एक नए से डर के घेरे में रहना शुरू हुआ है| कई डर आये और कुछ दिन गुज़ार कर चले गए| शायद यह भी चला जाये कुछ दिन बाद, पर जितने दिनों से यह साथ में है जीवन दूभर है| पहली बार किसी डर ने लेखन के आसपास भटकने की हिम्मत की है| मुझे डर लगने लगा है कि कहीं मेरे लेखन से बास न आने लगे| अभी तक मेरा लेखन निडर रहा है| हाँ, पर मैं डरी-सहमी ज़रूर रहीं हूँ|  मैंने अपने लेखन के इर्द-गिर्द खुदको भी नहीं जाने दिया पर यह प्रेत नुमा डर मेरे लेखन के पास मंडरा रहा है| मुझे अँधेरे से डर लगता रहा लेकिन लिखते समय मुझे अँधेरा चाहिए होता है किन्तु अब लगता है कि मेरे पीछे कोई बैठा हुआ है जो निरंतर मेरी उँगलियों को कीपैड पर पड़ते देख रहा है| मैं निरंतर काँप रही हूँ कि वह मेरे ताज़े से लेखन को कहीं बासी न कर दे| मुझे हर बासी होती हुई चीज़ों से खीज महसूस होती है जैसे बिस्तर के किनारे पड़ी हुई किताबें, संदूक में पड़े एल्बम, मकानों में पड़ी घर की स्मृतियाँ, पड़ोसी के अमरूद के पेड़ से गिरे अमरूद, दालान में पड़ा अख़बारों का अम्बार, गमलों के पेंदे पर जमी काई और अब बासी होती हुई चीज़ों का और विस्तार हो रहा है| मुझे मेरे

"किवाड़ पर उभरे गड्ढे"

  जब छुट्टियों में घर जाना होता तो अम्मा और किवाड़ दोनों इंतज़ार करते हुए मिलते थे| अम्मा की चमकती आँखें दिखती पर नीचे आये गड्ढे हर बार और गहरे हो जाते| पिछले कितने बरसों से वह घर में रहकर भी कभी पिता की राह तकती थी तो कभी हमारी| अम्मा ने सुख में भी इंतज़ार किया|  अम्मा की आख़िरी स्मृति किवाड़ के सहारे टिक कर खड़े हुए है| उनका आधा शरीर घर की ओर है और आधा शरीर बाहर जैसे वह आधी जीवित और आधी मृत हों| अम्मा अब जा चुकीं हैं, बहुत दूर; लेकिन हमें केवल घर की दूरी मालूम रही| अम्मा की मौत पर घर भी क़ब्रिस्तान तक गया था हालाँकि किवाड़ अपनी जगह जमा रहा और बिलखता रहा| कितना सब कुछ अम्मा अपने साथ ले गयीं और जो छूट गया, वो अपने पैरों पर चल कर ख़ुद चला गया| साल रेंग रहे हैं, महीने चल रहे हैं और घड़ी की सुई दौड़ रही है| घर अब पास लगने लगा है लेकिन वहाँ जाने की वजह, बहुत साल पहले; बहुत दूर चली गयी| अम्मा का पता घर था पर घर अम्मा से था| अम्मा के बाद हम घर पर बहुत लम्बा रुके, जहाँ रुके वह मकान हो चुका था| हमने सिंधु घाटी सभ्यता को खंडहर होते हुए नहीं देखा केवल उसके बारे में सुना था पर हमने घर को मकान के

"शोषित पाँव"

  एक वक़्त बाद बहुत ज़रूरी हो जाता है लौटना| जहाँ से पाँव ने भागना शुरू किया था शायद वहाँ लौटना असंभव होता है इसीलिए उस तरफ़ लौटने का विचार भी नहीं आता| लेकिन कभी-कभी कहीं बस लौट जाने को मन उतावला हो जाता है, जहाँ पाँव पर आये छालों को देखा जा सके, उन्हें खुले में छोड़ा जा सके और हाँफते हुए शरीर को फिर से हाँफने के लिए तैयार किया जा सके| बचपन में घर के बड़ों ने माँ और पिता को बतला दिया था कि इसके पाँव किसी एक जगह नहीं टिकेंगे| वाक़ई, पाँव हवा में ही रहें| कभी पाँव किसी शहर में लगभग टिकने को होते तो दूसरे शहर से बुलावा आ जाता| पलायन से भरपूर जीवन दूर से देखने में सुन्दर लगता है हालाँकि पास से देखने में एकदम फीका होता है| एक शहर की सुगंध लिए दूसरे शहर भागती नाक, अपनी पसंदीदा गंध भूल जाती है|  किसी एक शहर को अपना शहर बोलने में ज़बान लड़खड़ाने लगती है| किसी एक शहर में इतना रहना नहीं हुआ कि उस शहर के आग़ोश में चैन से नींद आयी हो| मुझे हमेशा लगता रहा कि भागते रहना, हमें जीवन की मुश्किलों से निज़ात दिलाता है क्यूँकि भागते हुए इंसान का ध्यान सिर्फ़ भागने पर रहता है| (ख़ानाबदोश जीवन एक इंसान में

"दौड़ता शहर"

  मैं पागलों की तरह सड़क के बीचों-बीच दौड़ रही हूँ जबकि दौड़ने से मेरा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा| (अक्सर हम वे सपनें देखते हुए खुदको पाते हैं जिनका कोई सर-पैर नहीं होता|) सहसा मेरी नींद टूटी|   (शहर में नींद खुलती नहीं, टूटती है|) मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-ब-तर पड़ा है| मैं बिना सोचे बालकनी की तरफ दौड़ी कि शायद बाहर की ठंडी हवा लगने से कुछ जान में जान आ सकें|  भीतर जो कुछ दौड़ रहा था वो अब बाहर भी दिखाई दे रहा है| दौड़ता, हांफता हुआ|  कृत्रिम रोशनियों ने सारे शहर को उजाले में छुपा दिया है| सड़कों पर चंद गाड़ियाँ अभी भी दौड़ रही है| शहर का एक छोर कहीं अनंत में लटका हुआ है और दूसरा छोर कहीं शून्य में पड़ा हुआ है| मैं शून्य से अनंत तक पलक झपकते दौड़ गयी मानो मेरी कोई पसंद की चीज़ शून्य से अनंत में जा के छुप गयी हो| शहर हमेशा से मेरे गले में फँसी हड्डी के समान रहा है| इस हड्डी की बनावट में सपने और ज़रूरतों के खनिजों का उपयोग हुआ है| मुझे शहर से कभी घृणा नहीं रहीं और न ही कभी प्रेम रहा| (जीवन में कभी कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिसमें न घृणा होती है न प्रेम|) जब पहली बार पगडंडियों से होक